Thursday, July 12, 2012

धूप की बांहों में

वो सड़क पर धूप के आकार बिखरे हुए -
कई चिड़ियें दौड़ जाती हैं
इस ओर से उस ओर.
मन करता है देखती रहूं
उसके वादे के साए में,
बैठी रहूं.
मेरे गीले बालों पर जो पड़ रही है
उस से कहीं मीठी है, जो वहां पर
छन रही है.
वो वादा है धूप का,
उस रास्ते पर जहाँ से
मुझे लौट कर जाना है.
अभी जो मेरे साथ है उस से ज़ियादा
चाहता है मन आगे
उस साथ का वादा.
वही जो बिखरी हुई है
इस तरफ भी उस तरफ भी
उसके यूं ही बिखरे रहने का दिलासा...
कभी सिमट के ढल न जाये,
या उफ़न कर जल न जाए,
बस यूं ही मेरे चारों ओर फैली हो
पेड़ों के नीचे, उनकी परछांई में
इस बेंच के पीछे, मुझे बांहों में थामे.
और मेरे सामने इस पानी में कुछ कुछ
सूरज उन्ड़ेलती, गर्माहट संवारती
कुछ कुछ बीती
गर्मियों की यादें चमकाती.

Monday, June 04, 2012

पानी, पानी, रे...

पानी - मीठा, मैला, और नीले की जगह
कुछ कुछ काला...
पानी - जिसमें मेरा साया भी अब
वैसा ही धुंधला हो चला है, जैसे अम्मा की आँखों में रोशनी.
पानी जो मेरे बचपन-सा उफ़नता, उमगता
एक दिन अनायास ठिठका... ठहर गया।
मैं उस दिन, अम्मा ने कहा, बड़ा हो गया.

पानी की गलती नही, किनारे ने भुला दिया मुझे
यहाँ गाँव में मेरे, मेरे खेत की मेढ़ बनने आना था -
वो शहर मगर ईंट, पत्थर, नींव बनने चला दिया.
पानी तो ठहरा यहाँ, जीवन मगर
किनारे-सा बहता, कब का कहीं और निकल लिया।

किनारे से उलझती, मचलती छोटी मोटी मकड़ियाँ 
जो जाल बुनती थीं पत्तियों के इर्द-गिर्द
और किनारे पे काई में रेंगते, दौड़ते, फुदकते नन्हें कीट
पैरों की उँगलियों में मेरे उलझते चलते थे...
मुझे महसूस तो होते थे,
जाने कभी नज़र क्यों नहीं आये.

कभी पानी नहीं, रात को सपनों में देखता हूँ
मैं कोई बाढ़, कभी अकाल.
सरकारी अफ़सर, एक पढ़ा-लिखा नेता, बड़े-बड़े दूकानदार.
पानी नहीं, किनारों को समेटने, दबोचने आये थे
मेरे खेतों की मेढ़ मेढ़ भी बटोर ले गए,
और छोड़ गए -
मायूस मकड़ियाँ, भूरे कीट, थोड़ा पानी.

पिद्दी मकड़ियाँ - लिपटी सूखी, तार-तार पत्तियों से
दुबकते, सहमते, मुरझाते कीट, घबराए आहटों से
काला, मटमैला, डूबता पानी -
जिसमें सुख के अब सारे साए
जाने कितने धुंधले हो चले हैं.

Togetherness...

Moments like these I realize why my husband and I stuck it out for five long years in a long-distance relationship. We had no clue when we would be able to live together, if not under the same roof, in the same city, same district, same state...we had to wait till we got married last year.

Sridhar had been asking me to watch Nandalala, Mysskin's brilliant movie about people on the periphery of societies; how they sometimes find strength in what little they can garner from a manifestly unfair life, and find the heart to share it....

I finally watched it last week. And our review was to hug each other for a long five minutes. We did not have any words for what we had witnessed, the craft of film-making itself surpassed all highs, but the brilliant, unsullied hope and the unexpectedness of love and sensitivity in that movie completely overwhelmed us. There was nothing we could say to each other, nothing we could put into words. There are some things which make you realize the 'fake'ness, the artificiality of much of social life and its institutions. Mysskin's Nandalala was one such thing. It brings you down to basics - what matters? Which definitions, boundaries, relationships, what values matter?

Is it enough to have a car if you can't let someone in pain snuggle in the backseat? Is it okay to let institutes cage people who the society labels, 'mentally challenged', when their understanding of human emotions and relationships far surpasses ours? Am I more pious and moral because I have not had to prostitute myself for food? Am I wrong if I steal my father's tractor to take to the next village, two people who cannot pay for a ride? What are you good for if you can never be practical? If you can find an idol of the Holy Mother holding baby Jesus so peaceful, you forget that your entire life is a quest for your own mother? But then, the next moment you steal the candles by the idol's side and are back plodding along your pitch-dark way!! Who are you if your own mother doesn't even recognize you, nor care, and you turn instead to the comfort offered by a woman who is herself a social outcast?

The movie raises so many questions...and answers them in its own quiet way. And it is in the powerful beauty of those answers that Sridhar and I lost all ability to speak for a few minutes. An equal wonder was to watch it with someone who was as mesmerised by the possibilities for loving and living as I was. Someone who has as much to say as I do about pretty much everything under the sun, but who couldn't find the right words because the movie had been powerful and amazing beyond all description.

Wednesday, April 04, 2012

मेरी ज़िन्दगी के चंद ख़्वाब


बस, उधर तुमने बोतल फेंकी और इधर,
मेरी ओर, ये तीन लफ्ज़.
तलाक़? तलाक़? तलाक़?
चलो, यूं ही सही.
तलाक़.
तुम भूल चुके हो और मैं भूल नहीं पाती-
तुम्हारी बीवी होने की शुरुआत, वो पहला दिन.
अपने ही लिए बस मेरा सारा वक़्त चाहने वाले तुम
और तुम्हारा रक़ीब, मेरा लिखना.
पेटी में रख दिए थे मैंने कागज़, क़लम
और साहिर के सब अशार.
तुम भूल चुके हो और मैं भूल नहीं पाती.

तलाक़.
ईद का दिन, और मेरी दो सहेलियां
बुशरा, जो मेरी तरह सांवली है. और अस्मा.
अंगूरी हरे में लिपटी मैं, और मेरी आँखों से नज़रें चुराते,
बेदाग़, सफ़ेद में उफ़नते तुम. अस्मा में खोये.
तुमने देखी उसके चम्पई कुरते-सलवार की सलवटें
और मैंने देखी उसकी आँखों में कसमसाती घबराहट.
तुम भूल चुके हो और मैं भूल नहीं पाती.

तलाक़.
माँ बनने से बेहद खौफ़ था मुझे,
और तुम्हें मर्द कहलाने का शौक़.
अब बेटी जान के उसे ख़त्म कर देना चाहोगे तुम,
उसे खो कर बेहद छटपटाऊँगी मैं,
मेरा दम कुछ और घुटने लगेगा.
मेरे अन्दर की अफ़रोज़ थोड़ा और मर जाएगी.
ये सब -
तुम भूल जाओगे और मैं भूल भी न पाऊँगी.

मगर बरसों बाद, कल रात तुमने कुछ दिया है मुझे,
और इसे पाके मैं फिर से कुछ जिंदा हुयी हूँ.
तलाक़, तलाक़, तलाक़.
शुक्रिया, मेरे शौहर. मुझे फिर नसीब होंगे अब-
अपने दिन, अपनी रातें, वो रेडियो, और अपनी आवाज़,
अपनी पेटी को खोलना और अपने वक़्त को अपना जान कर
फिर एक बार साहिर के सब अशार पढ़ना.
बरसों बाद तुमने कुछ दिया है मुझे.
आख़िरी बार - शुक्रिया, मेरे शौहर.
मुझे शायद फिर नसीब होंगे अब
वो मेरी ज़िन्दगी के चंद ख्व़ाब...
* * * * * * *

Tuesday, March 27, 2012

"कैसे किसी से कह दूं बातें वो प्यार की,
गुलाबी कलियों के जहान-ए-इज़हार की
शोख़ी नज़रों की, वो लहजे की खनक,
तल्खियाँ भी हाय वो ज़ुबान-ए-यार की..."

Friday, March 09, 2012

मेरी बेटी मुझसे एक रोज़ ज़रूर पूछेगी

[It's about the aftermath of the Gujarat riots when neighbours silently exhorted to do so for nearly 3 years had finally turned against each other. And afterwards, even those who did not feel any animosity or hatred kept silent, did not speak up, did not tell their own people that it was wrong - what they had done. No religion, no nation could accept it, condone it. It is the anguish of one such woman who, after long miserable years, decides to speak up because she feels the burden of bringing up the next generation right. Not steeped in hatred, indifference or uncaring acceptance of lies dressed as truth. To her, answering to her daughter is a more important responsibility than answering to any god.]


गुज़िश्ता सालों में न जाने कितनी बार,
कितनी बार मैं ये कर चुकी हूँ.
मगरइस बार सोचती हूँ . . . क्यों?
क्यों तुम्हें क़ुर्बान कर रही हूँ?
जो तुम्हारा भी वतन हैउसमें,
खुद को वतनपरस्त बताने को,
क्यों तुम्हारे सच को झूठ
कर रही हूँ. . . . तुम्हें एक बारी, फिर
क़ुर्बान कर रही हूँ.
* * *

अपने आप को बचाने के लिए
अपना सर, अपनी गर्दन बचाने के लिए,
अपने रास्तों को, कुछ अपनी
धूपअपनी बारिशों को बचाने के लिए
तुम्हारे दिल के खून, तुम्हारी नज़रों की कसक - 
सबफिर खाक़ कर रही हूँ.
तुम्हारे आंसूं जो नीलेसफ़ेद,
तुम्हारे रुमालों में समा भी ना पाते हैं -
उन्हें भी खाक़ कर रही हूँ.
तुम्हारी बेटी का जो हश्र हुआ था,
अपनी बेटी को उससे बचाने के लिए
फिर एक बार. . .
तुम्हें क़ुर्बान कर रही हूँ.
* * *

यही मेरा बहाना है,
इसी में मैं मुंह छुपाती हूँ,
इसी से लिपट कर वो सब रातें गुज़ारती हूँ
जब तुम्हारी चीख़ें,
तुम्हारे घर के खंडहर,
तुम्हारे बागीचे के मसले, कुचले, अधमरे फूल
मुझे सोने नहीं देते.
अब अपने बगीचे में चैन से पानी देने नहीं देते. . .
* * *

तुम्हारा रिक्शा - 
जिसमें बैठ कर, मैं पढ़ाने जाया करती थी.
तुम्हारी बेटी, जिसकी प्यारी, बहुत शोख़ हँसी से
कभी बारामदे, कभी स्कूल के कमरे मेरे-
गूँजा, खिलखिलाया करते थे.
तुम्हारी बेटी, जो मेरी भी बेटी थी,
मगर, उससे माँ होने का अपना वायदा,
उस इक रोज़ मैंने तोड़ दिया.
औरजिसका ग़म भी करने की
मुझमें क़ुव्वत नहीं.

तुम्हारी पत्नी, जिसे ना जाने कितनी बार
मैंने बाड़ के इस पार से
सिंवैंयें बनाते देखा;
तुम्हारा इंतज़ार करते,
तुम्हें देर हो जाने पेसौ-सौ बार मरते देखा.
तुम्हारी पत्नी, जो तुम्हारी जान थी. 
और जिसे मेरे गुलाबी बारामासी के फूल
बहुत पसंद थे.
तुम्हारी पत्नी, जिसने कभी ईद, कभी होली के बहाने
अपने बच्चों को मेरे पास भेजा -
मेरी दुआओंमेरे दिल पे भरोसा करके...
और तुम देखते रहे.

तुम्हारी पत्नी,
जिसका भरोसा, मैंने उस दिन के बाद,
बेखटके कई बार तोड़ा है-
और तुम देखते रहे हो . . .
* * *

उस शाम के बाद,
कि जिसमे अपना सब कुछ तुमने भस्म होते देखा
मेरे लोगोंमेरे वोटोंमेरे धरम का असर देखा. . .
उस शाम के बाद भी तुम
शायद, मुझे अपने रिक्शे में बैठाते,
मुझे उस स्कूल तक छोड़ आते -
जहाँ अपनी बेटी को
मुझे तुम हर दिन सौपा करते थे,
उसके सुनहरे कल में,
मेरी और अपनी कोशिशों की परछाईं देखा करते थे
शायद . . . गुज़रे दिनों की खातिर,
तुम मुझे वहां तक छोड़ आते.
* * *

तुम वो भी भुला देते जो मैं भुला नहीं पाती,
जिसके रहते अपने भगवान् से आँखें नहीं मिला पाती,
जिसके साए में मुझे हर शाम - 
उस सफ़ेद, सुनहरे मंदिर की घंटियों का शोर
पागल किये देता है -
और तुम हो,
कि उसको सुन भी नहीं पाते.

और तुम नही सुन पाते
मेरी आवाज़ -
जो बिना लफ़्ज़ोंबिना बहानों के
बिना मेरे होंठों के जाने ,
तुमसे हर वक़्त
माफ़ी माँगा करती है,
मगर तुमसुन नही पाते.
* * *

मैं नही जानती वो कौन थे
जिन्होंने तुम्हारा घर लूटा
मैं जानती हूँ मगरकि मैंने उन्हें नहीं रोका.
उस सियाह रात के बाद हर रोज़
तुम्हारी सुबहों को बेनूर किया है मैंने,
तसल्ली तो क्या दी, तुम्हे लाचार किया है मैंने.
क्योंकि अब तक भी कहा नहीं मैंने ये ज़ोर से- 
कि इस दौर, इस दुनिया में
मेरा भी कोई हिस्सा नही,
अगर वो तुमसे मैं न बाँट सकूँ.
इस सियासत, इस सरकार पे मुझे भी ऐतबार नहीं
अगर तुम्हारे हक़, तुम्हारी ज़िन्दगी की कीमत
उनसे मैं ना मांग सकूँ.
और मैंने फिर आने दिया उन को तुम तक,
जिन ताक़तों ने तुम्हारे घर का चैन लूटा था.
* * *

मगर अब,
अब मैं भी नाराज़ होने लगी हूँ
बिलखने लगी हूँ तुम्हारी तरह,
अन्दर ही अन्दर टूट कर बिखरने लगी हूँ. 
अब मैं डरती हूँ
कि मेरे अन्दर का इंसान बिलकुल मर न जाये
ताक़त-सियासत के खेल में
मेरी ममता भी
पूरी तरह घुट न जाए.
मुझे वो दिन क़तई गंवारा न होगा-
जब मेरी बेटी मुझसे पूछेगी,
और उस की पाक़, साफ़,
सवाल भरी नज़रों से,
अपनी बुढ़ाती हुई, गुनाहगार
नज़रें न मिला पाउंगी मैं,
अपने दिल पे हाथ रख कर कह न पाऊँगी -
कि वतनपरस्ती और इंसानियत के माने क्या हैं . . .
तुम्हारी आवाज़ में आवाज़ मिलाना?
या तुम्हारी आवाज़ को
फिर एक बार,
शहर से दूर,
सैंकड़ों 'केम्पों' में दफ़न कर आना???
मेरी बेटी मुझसे ये एक रोज़ ज़ुरूर पूछेगी,
वतनपरस्ती और इंसानियत के माने क्या हैं.
तब मैं तुम्हें क़ुर्बान न कर पाऊँगी,
तुम्हारे सच को और झूठ न बना पाऊँगी,
मेरी बच्ची को तुम ही
अपने रिक्शे में स्कूल ले जाना.
तुम्हें अब ग़ैर ना ठहराने दूंगी किसीको,
अब और तुम्हें ना-उम्मीद न कर पाउंगी.
मेरे ख़ुदा को इस सब से सरोकार नही,
न सही,
मगर,
मेरी बेटी मुझसे ये एक दिन ज़ुरूर पूछेगी   . . .

*  *  *  *  *