Monday, June 04, 2012

पानी, पानी, रे...

पानी - मीठा, मैला, और नीले की जगह
कुछ कुछ काला...
पानी - जिसमें मेरा साया भी अब
वैसा ही धुंधला हो चला है, जैसे अम्मा की आँखों में रोशनी.
पानी जो मेरे बचपन-सा उफ़नता, उमगता
एक दिन अनायास ठिठका... ठहर गया।
मैं उस दिन, अम्मा ने कहा, बड़ा हो गया.

पानी की गलती नही, किनारे ने भुला दिया मुझे
यहाँ गाँव में मेरे, मेरे खेत की मेढ़ बनने आना था -
वो शहर मगर ईंट, पत्थर, नींव बनने चला दिया.
पानी तो ठहरा यहाँ, जीवन मगर
किनारे-सा बहता, कब का कहीं और निकल लिया।

किनारे से उलझती, मचलती छोटी मोटी मकड़ियाँ 
जो जाल बुनती थीं पत्तियों के इर्द-गिर्द
और किनारे पे काई में रेंगते, दौड़ते, फुदकते नन्हें कीट
पैरों की उँगलियों में मेरे उलझते चलते थे...
मुझे महसूस तो होते थे,
जाने कभी नज़र क्यों नहीं आये.

कभी पानी नहीं, रात को सपनों में देखता हूँ
मैं कोई बाढ़, कभी अकाल.
सरकारी अफ़सर, एक पढ़ा-लिखा नेता, बड़े-बड़े दूकानदार.
पानी नहीं, किनारों को समेटने, दबोचने आये थे
मेरे खेतों की मेढ़ मेढ़ भी बटोर ले गए,
और छोड़ गए -
मायूस मकड़ियाँ, भूरे कीट, थोड़ा पानी.

पिद्दी मकड़ियाँ - लिपटी सूखी, तार-तार पत्तियों से
दुबकते, सहमते, मुरझाते कीट, घबराए आहटों से
काला, मटमैला, डूबता पानी -
जिसमें सुख के अब सारे साए
जाने कितने धुंधले हो चले हैं.

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