Tuesday, March 16, 2010

mahfuuz

महफूज़


ज़मीर-ओ-जज़्बात और चाहत की सच्चाई,
ईमान की ताक़त और फ़नों की रानाई,
इनको भी मिट जाने दे, खो जाने दे -
के ऐसे ख़्वाबों की ज़माने को ज़रुरत ही नहीं।
ख़्वाबगाहों की जो क़ीमत है, जवानी की नहीं;
अपने कुछ ख़ास ख्वाबों को पलकों पे पनाह दे,
बज़ार की इजाज़त नहीं, इंसान की हिम्मत नहीं।

Monday, March 15, 2010

loktantr meN aamne-saamne

लोकतंत्र में 'आमने-सामने'


मान गए साहब - कोई ये नहीं कह सकता कि कांग्रेस को लोकतंत्र चलाना नहीं आता। मतलब, लोकतंत्र के नाम पे सवा अरब को 'चलाना' - क्या कम करतब है? और फिर बीमार को पता भी न चले कि वो कब बीमार, कब चंगा, ऐसा इलाज तो पुराने अनुभवी बैद-हकीम ही कर सकते हैं।
इस ‘चलाने' का ताज़ा तरीन उदाहरण है – अनिल सदगोपाल और केंद्र सरकार का ‘आमने सामने’ होना। ज़रा पूछिये कि यह सारा उपक्रम आखिर किया किस वजह से गया? जिस आदमी को अपने अनुभव, काम और पूर्व भागीदारी के बावजूद बिलकुल सफाई से केब २००९ से दूर रखा गया उसे सरकार ने प्रेमवश तो नहीं बुला लिया शिक्षा के अधिकार पर बात करने के लिए। १ मार्च को दूरदर्शन पर 'आमने सामने' कार्यक्रम में सुधांशु रंजन ने प्रो. यशपाल, शकील अहमद और अनिल सदगोपाल से आधे घंटे शिक्षा का अधिकार २००९ कानून पर चर्चा की। जिन्होंने कार्यक्रम देखा उनमें से कुछ दोस्तों कि टिप्पणियों से मुझे लगा कि कुछ बातें साफ़ करने कि ज़रुरत है।
क्या है, कि हमारे लोकतंत्र में कोई ज़्यादा शोर मचाता है तो उस आवाज़ को दबाने के लिए आवाज़ मिलाने की कोशिश की जाती है। अब जनता तो रोज़ी-रोटी में उलझी है; एक साल में भूल ही गयी होगी कि ये विधेयक अंग्रेजी के अलावा किसी भाषा में कभी उपलब्ध नहीं रहा; इस पर कोई जन-सुनवाई नहीं हुयी, किसी मंच पे लोगों से या उन के प्रतिनिधियों से बात नहीं हुयी। इन सब की, और कई मूलभूत संशोधनों कि मांग पिछले एक साल से अनिल सदगोपाल समेत कुछ अन्य 'ग्रुप्स' करते रहे; जब यह कैंप बड़ा होता गया, तो सरकारी कानों पे जूं रेंगी और दिमाग दौड़ाया गया कि क्या प्रपंच रचा जाए जिससे लगे कि सरकार विरोधी आवाजों को साथ लेके चल रही है? हिसाब लगाया गया कि आधे घंटे के कार्यक्रम में दस मिनिट अनिल सदगोपाल बोल लेंगे तो भला बिल का या यूपीए स्टाइल-लोकतंत्र का क्या बिगाड़ लेंगे? मगर लोकतंत्र में जनता सरकार पे कभी भी भारी पड़ सकती है - अगर जगी रहे। जगाने का काम अनिल सदगोपाल जैसे लोग करते रहें हैं।
और भैया, कांग्रेस कोई अभी नींद से नहीं जागी है। यशपाल भाई गलत कह गए कि चलो ६० साल बाद सही, सरकार जगी तो, शिक्षा के अधिकार को माना तो, कुछ तो देने को तैयार हुयी. . .साहब कांग्रेसियों की तो जागरूकता के हम कायल हैं, यही तो जागे हैं पिछले साठ साल – इनकी बदौलत तो हम, आप सो पाए . . .और कुल मिलकर आखिर इतना बड़ा लोकतंत्र और किस तरह चलाया जा सकता है, ज़रा सोचिये। मैं जागूं, तू सो जाए - प्रेम देखिये आप...
अब हर किसी की तो सुनी नहीं जा सकती न किसी 'डेमोक्रेसी' में। तो हमारी आम आदमी कि सरकार ने पढ़े-लिखे, बड़े लोगों के हाथ में ज़िम्मेदारी दे दी – कि चलिए बताइए कैसी शिक्षा का और कैसा अधिकार दिया जाये इस देश के बाकी लोगों को? फिर हमारे यहाँ के बड़े लोग कोई ऐसे वैसे हैं? इन्होने अमरीकी 'यूनियन कारबाइड' के लिए खून के आंसू रो रो कर केंद्र सरकार को ख़त लिख दिए थे, उसके लिए माफ़ी मांग ली थी; ये क्या अपने ही लोगों के लिए एकाध अधिकार जैसी दिखने वाली चीज़ भी नहीं मांग सकते?
मगर आपने सुना कांग्रेस के शकील अहमद साहब को – सारे बच्चों को एक जैसी बढ़िया शिक्षा मिलना, सरकारी स्कूलों में बढ़िया शिक्षा देना – यह सब आदर्शवादी बातें हैं; आदर्श की तो परिभाषा ही यह कर दी है कि जिसे कह के काम चल जाए, करने कि ज़हमत न उठानी पड़े। दूसरे, आप ज़रा सरकार कि मुश्किलात भी समझिये – अमीरों के बच्चों की पढाई पे खर्च करने (और स्कूल बनाने से बेहतर तरीके भी हैं इन पे खर्च करने के) से 'रिटर्न' बेहतर मिलते हैं; पक्का है कि कुछ कर-कुरा के पास करा लेंगे बच्चों को – ट्यूशन लगवा देंगे, कोचिंग भेज देंगे. . .दूसरी तरफ किसान-मजदूर, इन के साथ दिक्कत यह है कि एक तो खुद पढ़े-लिखे नहीं हैं, दूसरा ट्यूशन कोचिंग भी नहीं भेज पायेंगे, तगड़ी फीस भी नहीं दे पाएंगे! अब इन के लिए टीचर जुगाड़ो, स्कूल बनाओ, ढंग से पढ़ाओ मगर कोई भरोसा नहीं कि कल को ‘माई-बाप’ का लिहाज रखेंगे; आके छाती पे मूंग दलेंगे – पानी दो, ज़मीन दो, जंगल दो! कम-से-कम अमीर आदमी अख़बार में जो चाहे बयान दे दे, आके गर्दन तो नहीं पकड़ता! उसको दे के देखो, कभी एहसान फ़रामोशी नहीं करेगा।
यशपाल जी ने भी एक पते कि बात बता दी हम सबको कि जब सरकार २५ % गरीब बच्चों को निजी स्कूलों में 'एंट्री' दिलवाएगी तो इस से उन स्कूलों के बाकी बच्चों का फायदा होगा – वो यह जान पाएंगे कि 'भारत' क्या है। थोड़ी दिक्कत इस में ज़रूर आ सकती है क्योंकि इन बच्चों को भारत को जानने के लिए अपनी शिफ़्ट के बाद रुकना पड़ेगा, अपने कमरों से बाहर निकल कर टीन के नीचे जहाँ उन २५ परसेंट बच्चों का ‘स्कूल’ लगेगा वहां खड़े रहना पड़ेगा, और बतौर मनोरंजन उन टीचरों को बर्दाश्त करना पड़ेगा जो उन २५ % को पढ़ाने के लिए दिहाड़ी या कांट्रेक्ट पे 'मिनिमम वेजेज़' पे रखे जायेंगे। यह सस्ता, सुन्दर, टिकाऊ और कानूनी तौर पे जायज़, तरीका राजधानी दिल्ली के कई बड़े, दिलदार स्कूलों में पिछले कुछ समय से अपनाया जा रहा है। सरकार भी पीछे नहींरही- उस ने इन पे इनाम लुटा के ये भी जता दिया है की वो नैतिक/अनैतिक, बढ़िया/बेकार के छोटे झगड़ों में कतई नहीं पड़ेगी, बस शिक्षा देने का महान काम करते जाना है।
अब यह भी कम फ़न नहीं है कि कोई केंद्रीय सरकार भारतीय संविधान और विश्व बैंक के फ़रमान, दोनों को एक साथ निभा ले जाए - मुश्किल करतब है साहब...मगर आप यह न समझिये कि इन्होंने देश को ताक पे रख दिया है - सब कुछ ये देश की तरक्की के लिए ही तो कर रहे होते हैं। मनमोहन सिंह ने तो पिछले दशक की शुरुआत ही में क़सम खा ली थी - या वो रहेंगे या ये देश - मतलब...जिस हाल में था देश उनसे बर्दाश्त नहीं हुआ। प्रधान मंत्री नहीं तो वित्त मंत्री ही बनकर देश की औरदेश के गरीबों की खूब सेवा की। उस पर वाह रे ख़ुदा कि क़ुदरत - विश्व बैंक जैसा चमत्कारी गुरु! अरे जो भरे घड़े को और भर दे, और खाली को और खाली करा ले, वो क्या नहीं कर सकता! उसी का हाथ है, और बचा खुचा कांग्रेस का, कि हमारी सरकार, और 'इंडिया इंक' इस देश के उपेक्षितों, थके-हारों का सब काम खुद ही तमाम कर पायें हैं - आपको हमको एक ऊँगली न उठानी पड़ी - उन्होंने हर तबके के लिए सब पहले ही तय कर दिया। कैसी शिक्षा, कितनी शिक्षा, कितने में शिक्षा...
विश्व बैंक आके समझा गया था सरकार को कि देखो, तुम्हारी जनता का कल्याण करने का हक़ सिर्फ तुम्हे नहीं, हमें भी है। तुम अब और कल्याण करने कि फ़िकर में मत पड़ो, जो तुमसे रह गया है उसे हम समझ लेंगे। मगर मुफ़्त के कल्याण ही से किसी का गुज़ारा हो सकता तो पंडित-मौलवी-पोप सब दुकानें लगा के क्यों बैठते? कल्याण कर के ही स्वर्ग न पहुँच गए होते? तो बेटा, कल्याण करवाने के 'यूज़र चारजेज़' लेना सीखो। पर तुम पिछड़े, गरीब लोग हो, इतना गणित न कर पाओगे। हम पुराने पहलवान हैं - हमारी पहलवानी देख के गणित खुद-ब-खुद हो जाता है; तो हमें देखो, और सीखो। अरे प्यास से मर रहे आदमी को पानी बेचने जैसी कलाओं में हमने लैटिन अमेरिका में खूब नाम कमाया है, वहां के प्यासे हमें कभी न भूल पाएंगे। तुम्हें भी तुम्हारी जनता के दिलों में बसना है तो हमारी सुनो।
कुछ छोटे, सरल सवाल हैं जिन के जवाब आप को मालूम हों तो आप भी देश के विकास की 'ब्लू प्रिंट' बना सकते हैं. यही विकास का रास्ता विश्व बैंक ने सरकार को समझा दिया। देश की भलाई काहे में है? विकास में। और नासमझों, विकास का मतलब आर्थिक विकास के सिवा कुछ नहीं होता। अब आर्थिक विकास खेतों में पैसा उगा के तो होता नहीं। सही तरीका है बाज़ार में सामान बेचके कमाने का। सब बिज़नसमेन ऐसे ही पैसा बनाते हैं - सबसे ज्यादा क्या चाहती है जनता? शिक्षा? तो शिक्षा बेचो। पर तुम राजनीति में हो, सरकार हो - तुम सीधे बाज़ार में जाके सामान नहीं बेच सकते। तुम तो नीति बेचो. सामान तो हम बेचेंगे, तुम्हारे उद्योगपति बेचेंगे। तुम तो बस ये फ़्री का सरकारी सामान बांटना बंद कर दो, दया कर के। और ढंग का सामान तो सरकारी दुकान में नज़र ही नहीं आना चाहिए।
और मानिये आप निजी क्षेत्र को; सरकार की तरह पैसों का रोना रोके एक तरफ नहीं हो गया। भारत की जनता को सीधे 'कान्टेक्ट' किया, कि देखो तुम्हारी ज़रुरत का सामान हमारे पास मौजूद है - पैसे ही कम हैं न तुम्हारे पास, चलो तुम जितना दे सको उतना ही खरीद लो, हमें बेचने में गुरेज़ न होगा! गुरेज़ तो क्या होता - ये तो वो भी बेच देते हैं जो होता ही नहीं है! और जो नहीं होता वो खरीदना तो हम आज़ादी के साठ सालों में सीख ही गए हैं। ख़ैर उन्होंने कम पैसे में बेचा - सफ़ेद की जगह मटमैली यूनीफॉर्म, ४० की जगह २० पन्नों की किताब, टीचरों की जगह फटीचर - गरीब को स्कूल तो मिला!
शिक्षा देना ज़रूरी भी है। अगर किताब में पढेंगे नहीं तो बच्चे जानेंगे कैसे कि वो कितने महान देश में रहते हैं? ख़ासकर दलितों, मुसलमानों, या दिहाड़ी-मजदूरों के बच्चे, और इस देश की लड़कियाँ कैसे जानेंगी? यूँ पता चले न चले, किताब में लिख दीजिये कि इन लोगों को शिक्षा का मौलिक अधिकार दे दिया गया है फिर देखिये लोग कैसे फटाफट मानते हैं इस बात को। और तरकीब यह आज़माई हुयी है। काम कैसे नहीं करेगी? बड़े बांधों के बड़े फायदे, हरित क्रांति का दिया हुआ रासायनिक स्वर्ग, इस दशक का आर्थिक विकास और उस की दर- ये सब भी तो किताब में पढ़-पढ़ के ही मालूम किया है इस देश के लोगों ने। हमारे यहाँ स्कूल की किताब और वेदों में कोई भेद भाव नहीं किया जाता है। जो लिखा है पाठ्यपुस्तकों में, वही परम सत्य है। उस के बाद तो लिखने वाले भी मरते मर जायेंगे, मगर किताब में लिखे पे सवाल नहीं उठाएंगे। आप को पता ही क्या है हमारी श्रद्धा, आस्था और भक्ति भाव के बारे में!
देखिये सीधी, साफ़ बात है। ये वैश्वीकरण का ज़माना है, अब आप अमीर-गरीब के देशी झगड़ों से निकलिए बाहर, उस से आगे बढ़िये। समझिये इस बात को कि दुनिया के सारे ग़रीब एक बराबर हैं, और दुनिया के सारे अमीर एक बराबर हैं - अब इस से ज्यादा क्या बराबरी हो सकती है भला? ज़रा वैश्विक दृष्टि विकसित कीजिये मियाँ!