Sunday, June 06, 2010

बुत


कैसे कह दूं के वो मेरा नहीं है?
इस शहर में रह्ता है, उसका
पर ये सवेरा नहीं है?
किस खून से सिंचे हैं ये दिल, इनमें
कुछ का है - सबका बसेरा नहीं है...

दूर मोहल्लों में पत्थर बरसा के आएँ हैं
किन लोगों ने अपने लड़कों को अवेरा नहीं है?
मकानों, दुकानों, और ज़मीन के नाम पर
मुझको बहकाए, वो खुदा मेरा नहीं है..!
खौफज़दा आंखों को नफ़रत का घर बतलायेगी
सियासत से बड़ा कोई यहाँ लुटेरा नहीं है।
बुझे चूल्हों से आख़री चिंगारी भी छीन लाए-
ताक़त का ये ख़्वाब तो सुनहरा नहीं है!

मेरा ख़ुदा ग़र इस शहर में रह्ता है,
तो किस बच्चे के चेहरे में वो चेहरा नहीं है?
या मैं समझूं के बस बुत ही हुए ख़ुदा तेरे मेरे
वरना, क्यों,
मेरे ख़ुदा का तेरे घर पे भी पहरा नहीं है??


Wednesday, June 02, 2010

सच्चाई


[ये कविता मैंने गुस्से में लिखी थी एक दिन, जब हमारे कॉलेज ने सरकारी शोर से डरकर हमारे अरुंधती रॉय की प्रेस-कांफ्रेंस में न जाने के प्रबंध कर दिए थे. मगर हम में से एक लड़की गयी अरुंधती को सुनने, जानने की वो क्या देख कर सुन कर, सीख कर आयी थी. और बाकी हम सब को बैठाकर कॉलेज में सरकार-राज, देश, और शिक्षा एवं पाठ्यक्रम में सुधार की बातें सुनायी गयीं - एक बेहतर और सही मायनों में लोकतान्त्रिक राष्ट्र और नागरिक बनाने की खातिर. हमें कुछ और करने से रोक कर, हमारी राय जाने बिना और हमारी इच्छा जानने के बावजूद. वहीं बैठकर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करने के लिए मैंने ये रास्ता इख़्तियार किया. हमें घेरने के लिए ये कांफ्रेंस रची गयी थी - वहां चल रही बातों पर ख़ास ध्यान देना कोई लाज़मी नही था. सो मैंने नही दिया.]

वो सर झुका के सब लिख रहे थे,
काग़ज़ों पे काग़ज़ भर रहे थे,
भर रहे थे -
काले, नीले अक्षरों से
बड़े, भारी अक्षरों से...
इन अक्षरों में छुपी कहानी
बड़े ज्ञान से ढंकी कहानी-
बाहर, दूर जो सच हो रही थी.
इन आँख-कानों की पहुँच से
दूर - लेकिन, घट रही थी।

यूं तरक़ीब से उसे दूर रख कर,
और कुछ का कुछ समझकर, ये
कमरों में चर्चा कर रहे थे.
ठन्डे, साफ़-सुथरे और चमकते -
कमरों में - बातें गढ़ रहे थे.
सुन रहे थे, लिख रहे थे, कह रहे थे -
नहीं चाहिए, जो अभी है नहीं चाहिए।
जिस तरह भी हो सके, ये सूरत बदलनी चाहिए
लुटे, थके, मन मार के जो
जी रहें हैं -
छोड़ना उनको नहीं है, उनकी
बात करनी चाहिए,
ज़रूर, सारी करनी चाहिए...

मगर, बाहर कहानी बढ़ रही थी -
इन बातों, किताबों से अछूती,
जूझती, अकुलाती, चीखती, झुठलाती,
और इन से कुल परे।
एक औरत कह रही थी -
कि कहानी बढ़ रही थी -
इन तमाशों से अछूती,
और दर्द से बिलबिलाती...

कमरे में बस एक लड़की
जलते सवाल से आँखों वाली-
वो जैसे झुंझलाई हुई सी,
उलझी, परेशान-सी आँखों वाली,
भरे कमरे से निकल कर
जाल बातों के कुतर कर,
भाग जाना चाहती थी।
वो सच्चाई की बात नहीं, सच्चाई
सुनना चाहती थी।
बदलाव जिस से आ सके-
वही अपनी, आवाज़ पाना चाहती थी
कहानी - जो किताबों तक ही बस ये रखना चाहते थे,
बातों की हवाओं में, बस उड़ा देना चाहते थे,
वो वही सुनना चाहती थी।
उस औरत की हर कहानी...

गुस्साई-सी सब आँखें,
और हैरान-सी कुछ आँखें
पीछा करती रहीं उसका,
नियम, कानून और बंदिशें सब
पीछा करती रहीं उसका
लेकिन, कहाँ उसका, वहां बस
कुछ सवालों का साया था - सुलगता.
सुलगता, संभलता, दहकता.

सो, 'बातों वाले', सवाल लेके, कमरे में
ही लौट आये -
सवालों पर अब 'बातें' होंगी. . .
वो लड़की, उसके साये भी सब-
इन के लिए कहानी बन गए हैं, 
इनकी बातों का हिस्सा बन गए हैं।

और बाहर? बाहर,
लड़की और उसके साये भी सब-
लड़ाई का हिस्सा बन गए हैं।
जूझती, अकुलाती, चीखती, झुठलाती-
हर औरत का हिस्सा बन गए हैं।
इन तमाशों से अछूती...
और इन से कुल परे।


* * * * *