Sunday, April 18, 2010

tuu...kuch aur bhii hai

तू. . .कुछ और भी है

मेरा प्यार तो है तू, मगर कुछ और भी है -
तू - कुछ और भी है...

कहीं छुपे पहाड़ी फूल की खुशबू है,
या खामोश लहरों का प्यारा-सा खेल,
नर्म हरी कोंपलों को सोचती नज़र है
या नन्हें परों को दिया आसमां का वादा...
किसी दर्द को सहलाता हाथ है
या उसका जवाब तलाशते क़दम...

तेरी आवाज़ में शबनम की नमी है
या किसी ख़ास ख्वाब का नशा,
इन आँखों में ठहरी कोई रोशनी है
या बहते पानी-सा तेरा ही वजूद?

जो भी है तू, जो कुछ भी तुझमें है
कुछ मेरी मंजिल है, कुछ मेरी राह-सा,
कहीं मेरे सवालों के जवाब-सा, तो
कहीं मचलते मेरे सवालों के साये-सा

या शायद,
सिर्फ, वो कुछ मस्त सुब्ह की रोशनी
जिसमें मेरा होना साफ़ नज़र आता है।

Monday, April 05, 2010

shikshaa kaa adhikaar: aage paDhaii yaa laDaaii

शिक्षा का अधिकार: आगे पढ़ाई या लड़ाई

'शिक्षा का अधिकार कानून, २००९' अब लागू हो जाएगा। एक तरफ समाज के कई तबकों, एनजीओ आदि में उत्साह, उम्मीद है तो दूसरी तरफ एक छोटे गुट में हताशा और गुस्सा भी है. इन प्रतिक्रियाओं, और इनके बीच के फर्क पर अगर नज़र डालें तो इस डर की गंभीरता समझ में आने लगेगी कि आगे कहीं शिक्षा की सारी लड़ाई इस कानून के क्रियान्वयन की चिंता तक ना सिमट कर रह जाए. क्या यह बढ़िया-सा सुनाई देने वाला नाम ही हमारा उद्देश्य था? इस अधिकार का व्यापक अर्थ, इसे अर्थ और दिशा देने वाली सोच, बुनियादी नीतियां क्या महत्त्वपूर्ण नहीं हैं? क्या यह कानून सारे बच्चों के लिए एक समान गुणवत्ता वाली पढाई का इंतजाम कर सकेगा? क्या इससे पिछड़े या गरीब बच्चों की पढाई पूरी तरह मुफ्त हो पायेगी? क्या ये बच्चे १४ साल की उम्र में ज्ञान के नाम पर जो कुछ लेकर, स्कूलों से निकलेंगे वह इन बच्चों, परिवारों, या समुदायों की ज़िन्दगी सुधार पायेगा?

मगर जिनसे हम इन सवालों के जवाबों की उम्मीद कर सकते हैं, जो विभिन्न संगठन, शिक्षाविद, कार्यकर्ता आदि इस अधिकार के लिए प्रयासरत रहें हैं वे आपस में बुरी तरह से वैचारिक रूप से बंटे हुए हैं. एक गुट है जिसने विश्व बैंक और वैश्विक बाज़ार को विजयी मान लिया है - वह अब वही करने में जुटा है जो इनकी शर्तों/नियमों के दायरे में रह कर भारत के बच्चों के लिए किया जा सकता है. दूसरा गुट मानता है कि न सिर्फ बाज़ार हमेशा जन-विरोधी नहीं होता, बल्कि आज उसके हस्तक्षेप, उसके सहारे के बिना सुविधा-विहीन तबकों के लिए कुछ भी लाभ बटोर पाना नामुमकिन है -आखिर सरकार दे ही क्या सकती है? तीसरा गुट है जो यह कह रहा है कि शिक्षा, जल-जंगल-ज़मीन कि तरह एक संसाधन है जिसे किसी लोकतंत्र में खरीद-फरोख्त की वस्तु नहीं बनने देना चाहिए.

पहले दोनों गुट शायद भूल रहें हैं कि छली गयी जनता की संगठित शक्ति, उसकी राजनैतिक समझ और विद्रोह में बाज़ार और सरकार के विकल्प की सम्भावना हमेशा मौजूद होती है. वो यह भी भूल रहें हैं कि बुनियादी नीतियों से न उलझकर वो शिक्षा को गैर-राजनैतिक करार देने की कोशिश कर रहें हैं. शिक्षा गैर-राजनीतिक मुद्दा कभी नहीं हो सकती. क्योंकि यह उन बुनियादी मापदंडों में से है जो किसी व्यक्ति या समुदाय के जीवन की गुणवत्ता तय करते हैं, उनकी सामाजिक-आर्थिक तरक्की, अपने आस-पास की दुनिया और समाज में उनकी भागीदारी और आर्थिक-राजनीतिक प्रतिष्ठा एवं ताक़त निर्धारित करते हैं. गुणवत्ता अगर पर्याप्त साधनों पर निर्भर है तो शिक्षानीति क्या आर्थिक नीति से निर्धारित नहीं होगी? तब क्या शिक्षा नीति और व्यवस्था को पिछले दो दशकों की हमारी आर्थिक एवं राजनीतिक विचारधारा से अलग करके देखना सही या संभव होगा?

इस कानून में आखिर दिक्कतें क्या हैं? यह साफ़ तौर पर शिक्षा को मुफ्त घोषित नहीं करता और न ही, अधोसंरचना या गुणवत्ता के निम्नतम मानक, मापदंड स्पष्ट करता है। इसी तरह शिक्षकों की शैक्षिक और प्रोफेशनल अर्हताएं अलग-अलग निर्धारित करने के लिए भी यह राज्यों को आज़ादी देता है. यह बहुपरतीय शिक्षा व्यवस्था को और मज़बूत करता है, और स्कूलों के निरीक्षण, विनिमयन का भी कोई प्रबंध नहीं करता. इन सब हथकंडों से यह बाजारीकरण-निजीकरण के एजेंडे की मदद कर रहा है. क्लासों, शिक्षकों की संख्याओं के खेल डीपीईपी और सर्व शिक्षा अभियान भी खेल चुके हैं. उनका बखान करने की यहाँ कोई ज़रूरत नहीं है. सवाल यह है कि जिस तरह विश्व बैंक ने वो कार्यक्रम चलाये थे उसी तरह क्या वो अपनी शर्तों पे भारत के केंद्रीय कानूनों और मौलिक अधिकारों की रूपरेखा भी तैयार करेगा? उसके खेल भारत के सबसे कमज़ोर या गरीब लोगों के कल्याण के लिए रचे जाते हैं या उन्हें फुसलाने, चुप कराने के लिए? केंद्र सरका जान बूझ कर सरकारी स्कूल व्यवस्था की गुणवत्ता और संख्या को नुकसान पहुंचाती रहीं हैं, और साधन से ज्यादा इच्छाशक्ति की कमी की शिकार हैं, या शायद सच में ही यह लोकतंत्र [भावी महाशक्ति!] अपने लोगों के मूल अधिकारों की सुरक्षा में अक्षम है?

इन सवालों के जवाब पर जहाँ एक ओर शिक्षा व्यवस्था का अस्तित्व खड़ा है वहीं दूसरी ओर इन्हीं पर संगठनों, शिक्षाविदों, बुद्धिजीवियों के बीच बुरी तरह से तलवारें खिंचीं हैं. इस सारे में निजी क्षेत्र कितना फायदे में हैं, कहाँ तक ज़िम्मेदार है इस सवाल पर भी कोई एकराय नहीं है.
हमारी शिक्षा व्यवस्था की दुर्गति, उसकी अविश्वसनीयता के मूल कारण क्या हैं? इनकी जड़ में कौन-सी सोच, विचारधारा, व नीतियां काम करती रहीं हैं? शिक्षा से वंचित रखा जाना किस तरह एक लोकतंत्र में पिछड़े तबकों के लिए अपनी भागीदारी और हकों से वंचना का कारण बनता है?

क्या ये सच नहीं कि शिक्षा में समानता और सबके लिए अच्छी शिक्षा जैसे मूल्यों को आधार बनाना न तो बाज़ार के हितों में हो सकता है न उसके नफ़े-नुकसान के नियमों के चलते संभव ही? क्या राजनैतिक संघर्ष के बिना नवउदारवाद या वैश्वीकरण के चुंगल से शिक्षा को बचाया जा सकता है? क्या ऐसा किये बिना भारत की सबसे कमज़ोर, सबसे असहाय बच्ची को बढ़िया और पूरी शिक्षा का अधिकार और सम्मान मिल सकता है? क्या बज़ार ऐसी सोच, सामर्थ्य उस बच्ची में पैदा करने को कटिबद्ध हो सकता है जिससे वो न सिर्फ आत्मनिर्भर बन सके बल्कि पूरी समझ के साथ अपने आस-पास के समाज और व्यवस्था पर सवाल खड़े कर सके, उन में सार्थक रूप से भागीदार बन सके? क्या ये सब कुछ कोई भी सरकारी स्कूल नवउदारवादी/पूंजीवादी अर्थनीति और विश्व बैंक के संरचनात्मक समायोजन कार्य्रक्रम और शर्तों के रहते कर सकता है? क्या लोकतंत्रीकरण और विकेंद्रीकरण के बिना किसी तरह निम्न या मध्यम वर्गों के लिए स्कूलों को जवाबदेह बनाया जा सकता है?

लोकतंत्रीकरण, विकेंद्रीकरण और जनता का सशक्तिकरण - ये तीनों जब सार्थक तरीके से हो पाएंगे तब हम शिक्षा ही क्यों, इसके साथ स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा आदि क्षेत्रों में भी सबसे सुवुधाविहीन तबकों के मूलभूत हक सुनिश्चित कर पाएंगे. सरकारी तंत्र यदि सरकार और नौकरशाही के भरोसे बिना विनियमन और बिना 'सोशल औडिट' के छोड़ दिया जाये तो क्या हश्र होता है हम जानते हैं. ऐसा तो नहीं है कि १९९१ की 'नयी आर्थिक नीति' के पहले हमारे यहाँ ज़मीनी स्तर पर बहुत समानता, या समाजवाद था. मगर इसके बाद से संवैधानिक मूल्यों का पालन और मुश्किल हो गया है; ताकतवर वर्गों को बेहतर संस्थागत रास्ते और बहाने मिल गए हैं अपना स्वार्थ साधने के.

यह कानून इन्हीं नए संस्थागत बहानों का एक और नतीजा है. २५% आरक्षण का जिस प्रावधान पर हम अभी मुग्ध हो रहें हैं वो दरअसल निचले सामाजिक-आर्थिक तबके को आपस में विभाजित तो करेगा ही; उनकी निजी स्कूलों में भर्ती होने की होड़ को इसका सबूत ठहराएगा कि अब तो गरीबों, पिछड़े तबकों के बच्चों के नाम पर भी सरकारी स्कूल व्यवस्था को जिंदा रखना मुमकिन नहीं है! मगर ये काम निजी क्षेत्र कर सकता है इस धोखे में रहना भी शिक्षा के अधिकार के लिए घातक ही सिद्ध हो रहा है. उनका काम अपना बिज़नेस चलाना और मुनाफा कमाना है; उनके पास वो इच्छाशक्ति या संसाधन कभी नहीं हो सकते जो एक कल्याणकारी राज्य में सार्वजनिक क्षेत्र जुटा सकता है - बशर्ते उसकी प्रथामिकतायों का हिसाब-किताब जन-विरोधी ना हों.

तो शिक्षा के मुद्दे पर दो तरह की सोच ले कर काम चल रहा है. उसे राजनैतिक संघर्ष और गैर-राजनैतिक सामाजिक मुद्दा समझने वाले दोनों गुटों के बीच जो वैचारिक दूरी, और संवाद एवं समझ का अभाव है उस से किसी तरह निजात पाना है. क्योंकि अगर इन दोनों के अंतिम उद्देश्य समान हैं, तो यह दूरी सिर्फ इनके रास्ते ही नहीं अलग कर देती, बल्कि इसका भरपूर फायदा शासक वर्ग को मिलता है - जब ये दोनों गुट कई मंचों और मुद्दों पे एक दूसरे के खिलाफ खड़े पाए जाते हैं. लम्बे राजनैतिक संघर्षों में जुटे गुटों को भी मानना होगा कि बुनियादी बदलावों की उम्मीद या इंतज़ार में ही समय नहीं गुज़ारा जा सकता - आज से भी गुज़रना और निपटना ज़रूरी है; मौजूदा हालात में जो बेहतरीन पढ़ाई मुहैया कराई जा सकती है पिछड़े तबकों के बच्चों को, वो देने-दिलवाने का काम अगर कई संस्थाएं, संगठन कर रहें हैं तो ये आज की ज़रूरतें और मुश्किलात देखते हुए सही है, लाज़मी है. मगर ये काम भी पूरी समस्या को जड़ समेत समझते हुए किया जाना चाहिए; शिक्षा के मुद्दे को समझने या इससे निपटने के लिए अगर इसे टुकड़ों में बांटना, सरल बनाना ज़रूरी है तो इस सरलता के धोखे में आने से बचना भी उतना ही ज़रूरी है.

ज़ाहिर है कि बढ़ते क्रम में केंद्रीकृत और वैश्वीकृत होती दुनिया और एक विकेंद्रीकृत शिक्षा-व्यवस्था की ज़रूरतों के बीच बुनियादी द्वन्द हैं, तनाव है. इन्हें स्वीकार करना और सुलझाना बेहद ज़रूरी है. किसी भी देश में एक विकेंद्रीकृत शिक्षा व्यवस्था जनता की मदद और भागीदारी के बिना, या सार्वजनिक क्षेत्र से बाहर न बन सकती है, पनप सकती है. फिर विकेंद्रीकरण न आसान है, न कोई जादू की छड़ी जिसे फेर देने से बुरी शिक्षा से छुटकारा हो जायेगा. आम जन की तैय्यारी भी होनी चाहिए ऐसे फैसलों में भागीदार बनाने की; तो ऐसे स्वतंत्र 'थिंक-टेंक' तैयार होने चाहिए और उनके लिए ये संस्थागत जगह होनी चाहिए कि वे शिक्षा-सम्बन्धी मुद्दों पे विचार कर सकें, आम जनता से इन पर विमर्श कर सकें, देश और समाज में ऐसी बातचीत एवं विमर्श को दिशा दे सकें, उसका नेतृत्व कर सके.

बाज़ार की ज़रुरत है उपभोक्ता तैयार करना, और हर स्तर पर कामगार तैयार करना; शासक वर्ग की ज़रुरत है शासित तैयार करना - जो शासकों के फैसलों, नियमों, संस्थाओं पर सवाल न करें, बस उन से बंध कर चलें. तो फिर सचेत उपभोक्ता, सचेत नागरिक, सचेत इंसान कैसे तैयार होंगे? इस अर्थ में क्या शिक्षा या ज्ञान के मायने और भूमिका डिग्री, नौकरी, सामाजिक-प्रतिष्ठा से कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण और दमदार नहीं हो जाते? क्या तब हमारे लिए ये ज़रूरी नहीं हो जाता कि हम एक वैचारिक और राजनैतिक विकल्प तलाशें? क्या इस विकल्प का एक पहलू शिक्षा के मौजूदा अधिकार के नकलीपन को पहचानना और शिक्षा के अधिकार का जनवादी, बाल-पक्षी रूप तैयार करना नहीं है?


[इस लेख का एक बहुत छोटा रूप ४ अप्रैल २०१० की 'जनसत्ता' में छपा था, और यहाँ छपा पूरा लेख ऐसा का ऐसा ही 'अनौपचारिका' के मई-जून संयुक्तांक में छपा है। http://www.jansattaraipur.com/]