Wednesday, April 04, 2012

मेरी ज़िन्दगी के चंद ख़्वाब


बस, उधर तुमने बोतल फेंकी और इधर,
मेरी ओर, ये तीन लफ्ज़.
तलाक़? तलाक़? तलाक़?
चलो, यूं ही सही.
तलाक़.
तुम भूल चुके हो और मैं भूल नहीं पाती-
तुम्हारी बीवी होने की शुरुआत, वो पहला दिन.
अपने ही लिए बस मेरा सारा वक़्त चाहने वाले तुम
और तुम्हारा रक़ीब, मेरा लिखना.
पेटी में रख दिए थे मैंने कागज़, क़लम
और साहिर के सब अशार.
तुम भूल चुके हो और मैं भूल नहीं पाती.

तलाक़.
ईद का दिन, और मेरी दो सहेलियां
बुशरा, जो मेरी तरह सांवली है. और अस्मा.
अंगूरी हरे में लिपटी मैं, और मेरी आँखों से नज़रें चुराते,
बेदाग़, सफ़ेद में उफ़नते तुम. अस्मा में खोये.
तुमने देखी उसके चम्पई कुरते-सलवार की सलवटें
और मैंने देखी उसकी आँखों में कसमसाती घबराहट.
तुम भूल चुके हो और मैं भूल नहीं पाती.

तलाक़.
माँ बनने से बेहद खौफ़ था मुझे,
और तुम्हें मर्द कहलाने का शौक़.
अब बेटी जान के उसे ख़त्म कर देना चाहोगे तुम,
उसे खो कर बेहद छटपटाऊँगी मैं,
मेरा दम कुछ और घुटने लगेगा.
मेरे अन्दर की अफ़रोज़ थोड़ा और मर जाएगी.
ये सब -
तुम भूल जाओगे और मैं भूल भी न पाऊँगी.

मगर बरसों बाद, कल रात तुमने कुछ दिया है मुझे,
और इसे पाके मैं फिर से कुछ जिंदा हुयी हूँ.
तलाक़, तलाक़, तलाक़.
शुक्रिया, मेरे शौहर. मुझे फिर नसीब होंगे अब-
अपने दिन, अपनी रातें, वो रेडियो, और अपनी आवाज़,
अपनी पेटी को खोलना और अपने वक़्त को अपना जान कर
फिर एक बार साहिर के सब अशार पढ़ना.
बरसों बाद तुमने कुछ दिया है मुझे.
आख़िरी बार - शुक्रिया, मेरे शौहर.
मुझे शायद फिर नसीब होंगे अब
वो मेरी ज़िन्दगी के चंद ख्व़ाब...
* * * * * * *