Friday, March 09, 2012

मेरी बेटी मुझसे एक रोज़ ज़रूर पूछेगी

[It's about the aftermath of the Gujarat riots when neighbours silently exhorted to do so for nearly 3 years had finally turned against each other. And afterwards, even those who did not feel any animosity or hatred kept silent, did not speak up, did not tell their own people that it was wrong - what they had done. No religion, no nation could accept it, condone it. It is the anguish of one such woman who, after long miserable years, decides to speak up because she feels the burden of bringing up the next generation right. Not steeped in hatred, indifference or uncaring acceptance of lies dressed as truth. To her, answering to her daughter is a more important responsibility than answering to any god.]


गुज़िश्ता सालों में न जाने कितनी बार,
कितनी बार मैं ये कर चुकी हूँ.
मगरइस बार सोचती हूँ . . . क्यों?
क्यों तुम्हें क़ुर्बान कर रही हूँ?
जो तुम्हारा भी वतन हैउसमें,
खुद को वतनपरस्त बताने को,
क्यों तुम्हारे सच को झूठ
कर रही हूँ. . . . तुम्हें एक बारी, फिर
क़ुर्बान कर रही हूँ.
* * *

अपने आप को बचाने के लिए
अपना सर, अपनी गर्दन बचाने के लिए,
अपने रास्तों को, कुछ अपनी
धूपअपनी बारिशों को बचाने के लिए
तुम्हारे दिल के खून, तुम्हारी नज़रों की कसक - 
सबफिर खाक़ कर रही हूँ.
तुम्हारे आंसूं जो नीलेसफ़ेद,
तुम्हारे रुमालों में समा भी ना पाते हैं -
उन्हें भी खाक़ कर रही हूँ.
तुम्हारी बेटी का जो हश्र हुआ था,
अपनी बेटी को उससे बचाने के लिए
फिर एक बार. . .
तुम्हें क़ुर्बान कर रही हूँ.
* * *

यही मेरा बहाना है,
इसी में मैं मुंह छुपाती हूँ,
इसी से लिपट कर वो सब रातें गुज़ारती हूँ
जब तुम्हारी चीख़ें,
तुम्हारे घर के खंडहर,
तुम्हारे बागीचे के मसले, कुचले, अधमरे फूल
मुझे सोने नहीं देते.
अब अपने बगीचे में चैन से पानी देने नहीं देते. . .
* * *

तुम्हारा रिक्शा - 
जिसमें बैठ कर, मैं पढ़ाने जाया करती थी.
तुम्हारी बेटी, जिसकी प्यारी, बहुत शोख़ हँसी से
कभी बारामदे, कभी स्कूल के कमरे मेरे-
गूँजा, खिलखिलाया करते थे.
तुम्हारी बेटी, जो मेरी भी बेटी थी,
मगर, उससे माँ होने का अपना वायदा,
उस इक रोज़ मैंने तोड़ दिया.
औरजिसका ग़म भी करने की
मुझमें क़ुव्वत नहीं.

तुम्हारी पत्नी, जिसे ना जाने कितनी बार
मैंने बाड़ के इस पार से
सिंवैंयें बनाते देखा;
तुम्हारा इंतज़ार करते,
तुम्हें देर हो जाने पेसौ-सौ बार मरते देखा.
तुम्हारी पत्नी, जो तुम्हारी जान थी. 
और जिसे मेरे गुलाबी बारामासी के फूल
बहुत पसंद थे.
तुम्हारी पत्नी, जिसने कभी ईद, कभी होली के बहाने
अपने बच्चों को मेरे पास भेजा -
मेरी दुआओंमेरे दिल पे भरोसा करके...
और तुम देखते रहे.

तुम्हारी पत्नी,
जिसका भरोसा, मैंने उस दिन के बाद,
बेखटके कई बार तोड़ा है-
और तुम देखते रहे हो . . .
* * *

उस शाम के बाद,
कि जिसमे अपना सब कुछ तुमने भस्म होते देखा
मेरे लोगोंमेरे वोटोंमेरे धरम का असर देखा. . .
उस शाम के बाद भी तुम
शायद, मुझे अपने रिक्शे में बैठाते,
मुझे उस स्कूल तक छोड़ आते -
जहाँ अपनी बेटी को
मुझे तुम हर दिन सौपा करते थे,
उसके सुनहरे कल में,
मेरी और अपनी कोशिशों की परछाईं देखा करते थे
शायद . . . गुज़रे दिनों की खातिर,
तुम मुझे वहां तक छोड़ आते.
* * *

तुम वो भी भुला देते जो मैं भुला नहीं पाती,
जिसके रहते अपने भगवान् से आँखें नहीं मिला पाती,
जिसके साए में मुझे हर शाम - 
उस सफ़ेद, सुनहरे मंदिर की घंटियों का शोर
पागल किये देता है -
और तुम हो,
कि उसको सुन भी नहीं पाते.

और तुम नही सुन पाते
मेरी आवाज़ -
जो बिना लफ़्ज़ोंबिना बहानों के
बिना मेरे होंठों के जाने ,
तुमसे हर वक़्त
माफ़ी माँगा करती है,
मगर तुमसुन नही पाते.
* * *

मैं नही जानती वो कौन थे
जिन्होंने तुम्हारा घर लूटा
मैं जानती हूँ मगरकि मैंने उन्हें नहीं रोका.
उस सियाह रात के बाद हर रोज़
तुम्हारी सुबहों को बेनूर किया है मैंने,
तसल्ली तो क्या दी, तुम्हे लाचार किया है मैंने.
क्योंकि अब तक भी कहा नहीं मैंने ये ज़ोर से- 
कि इस दौर, इस दुनिया में
मेरा भी कोई हिस्सा नही,
अगर वो तुमसे मैं न बाँट सकूँ.
इस सियासत, इस सरकार पे मुझे भी ऐतबार नहीं
अगर तुम्हारे हक़, तुम्हारी ज़िन्दगी की कीमत
उनसे मैं ना मांग सकूँ.
और मैंने फिर आने दिया उन को तुम तक,
जिन ताक़तों ने तुम्हारे घर का चैन लूटा था.
* * *

मगर अब,
अब मैं भी नाराज़ होने लगी हूँ
बिलखने लगी हूँ तुम्हारी तरह,
अन्दर ही अन्दर टूट कर बिखरने लगी हूँ. 
अब मैं डरती हूँ
कि मेरे अन्दर का इंसान बिलकुल मर न जाये
ताक़त-सियासत के खेल में
मेरी ममता भी
पूरी तरह घुट न जाए.
मुझे वो दिन क़तई गंवारा न होगा-
जब मेरी बेटी मुझसे पूछेगी,
और उस की पाक़, साफ़,
सवाल भरी नज़रों से,
अपनी बुढ़ाती हुई, गुनाहगार
नज़रें न मिला पाउंगी मैं,
अपने दिल पे हाथ रख कर कह न पाऊँगी -
कि वतनपरस्ती और इंसानियत के माने क्या हैं . . .
तुम्हारी आवाज़ में आवाज़ मिलाना?
या तुम्हारी आवाज़ को
फिर एक बार,
शहर से दूर,
सैंकड़ों 'केम्पों' में दफ़न कर आना???
मेरी बेटी मुझसे ये एक रोज़ ज़ुरूर पूछेगी,
वतनपरस्ती और इंसानियत के माने क्या हैं.
तब मैं तुम्हें क़ुर्बान न कर पाऊँगी,
तुम्हारे सच को और झूठ न बना पाऊँगी,
मेरी बच्ची को तुम ही
अपने रिक्शे में स्कूल ले जाना.
तुम्हें अब ग़ैर ना ठहराने दूंगी किसीको,
अब और तुम्हें ना-उम्मीद न कर पाउंगी.
मेरे ख़ुदा को इस सब से सरोकार नही,
न सही,
मगर,
मेरी बेटी मुझसे ये एक दिन ज़ुरूर पूछेगी   . . .

*  *  *  *  *