Wednesday, April 04, 2012

मेरी ज़िन्दगी के चंद ख़्वाब


बस, उधर तुमने बोतल फेंकी और इधर,
मेरी ओर, ये तीन लफ्ज़.
तलाक़? तलाक़? तलाक़?
चलो, यूं ही सही.
तलाक़.
तुम भूल चुके हो और मैं भूल नहीं पाती-
तुम्हारी बीवी होने की शुरुआत, वो पहला दिन.
अपने ही लिए बस मेरा सारा वक़्त चाहने वाले तुम
और तुम्हारा रक़ीब, मेरा लिखना.
पेटी में रख दिए थे मैंने कागज़, क़लम
और साहिर के सब अशार.
तुम भूल चुके हो और मैं भूल नहीं पाती.

तलाक़.
ईद का दिन, और मेरी दो सहेलियां
बुशरा, जो मेरी तरह सांवली है. और अस्मा.
अंगूरी हरे में लिपटी मैं, और मेरी आँखों से नज़रें चुराते,
बेदाग़, सफ़ेद में उफ़नते तुम. अस्मा में खोये.
तुमने देखी उसके चम्पई कुरते-सलवार की सलवटें
और मैंने देखी उसकी आँखों में कसमसाती घबराहट.
तुम भूल चुके हो और मैं भूल नहीं पाती.

तलाक़.
माँ बनने से बेहद खौफ़ था मुझे,
और तुम्हें मर्द कहलाने का शौक़.
अब बेटी जान के उसे ख़त्म कर देना चाहोगे तुम,
उसे खो कर बेहद छटपटाऊँगी मैं,
मेरा दम कुछ और घुटने लगेगा.
मेरे अन्दर की अफ़रोज़ थोड़ा और मर जाएगी.
ये सब -
तुम भूल जाओगे और मैं भूल भी न पाऊँगी.

मगर बरसों बाद, कल रात तुमने कुछ दिया है मुझे,
और इसे पाके मैं फिर से कुछ जिंदा हुयी हूँ.
तलाक़, तलाक़, तलाक़.
शुक्रिया, मेरे शौहर. मुझे फिर नसीब होंगे अब-
अपने दिन, अपनी रातें, वो रेडियो, और अपनी आवाज़,
अपनी पेटी को खोलना और अपने वक़्त को अपना जान कर
फिर एक बार साहिर के सब अशार पढ़ना.
बरसों बाद तुमने कुछ दिया है मुझे.
आख़िरी बार - शुक्रिया, मेरे शौहर.
मुझे शायद फिर नसीब होंगे अब
वो मेरी ज़िन्दगी के चंद ख्व़ाब...
* * * * * * *

Tuesday, March 27, 2012

"कैसे किसी से कह दूं बातें वो प्यार की,
गुलाबी कलियों के जहान-ए-इज़हार की
शोख़ी नज़रों की, वो लहजे की खनक,
तल्खियाँ भी हाय वो ज़ुबान-ए-यार की..."

Friday, March 09, 2012

मेरी बेटी मुझसे एक रोज़ ज़रूर पूछेगी

[It's about the aftermath of the Gujarat riots when neighbours silently exhorted to do so for nearly 3 years had finally turned against each other. And afterwards, even those who did not feel any animosity or hatred kept silent, did not speak up, did not tell their own people that it was wrong - what they had done. No religion, no nation could accept it, condone it. It is the anguish of one such woman who, after long miserable years, decides to speak up because she feels the burden of bringing up the next generation right. Not steeped in hatred, indifference or uncaring acceptance of lies dressed as truth. To her, answering to her daughter is a more important responsibility than answering to any god.]


गुज़िश्ता सालों में न जाने कितनी बार,
कितनी बार मैं ये कर चुकी हूँ.
मगरइस बार सोचती हूँ . . . क्यों?
क्यों तुम्हें क़ुर्बान कर रही हूँ?
जो तुम्हारा भी वतन हैउसमें,
खुद को वतनपरस्त बताने को,
क्यों तुम्हारे सच को झूठ
कर रही हूँ. . . . तुम्हें एक बारी, फिर
क़ुर्बान कर रही हूँ.
* * *

अपने आप को बचाने के लिए
अपना सर, अपनी गर्दन बचाने के लिए,
अपने रास्तों को, कुछ अपनी
धूपअपनी बारिशों को बचाने के लिए
तुम्हारे दिल के खून, तुम्हारी नज़रों की कसक - 
सबफिर खाक़ कर रही हूँ.
तुम्हारे आंसूं जो नीलेसफ़ेद,
तुम्हारे रुमालों में समा भी ना पाते हैं -
उन्हें भी खाक़ कर रही हूँ.
तुम्हारी बेटी का जो हश्र हुआ था,
अपनी बेटी को उससे बचाने के लिए
फिर एक बार. . .
तुम्हें क़ुर्बान कर रही हूँ.
* * *

यही मेरा बहाना है,
इसी में मैं मुंह छुपाती हूँ,
इसी से लिपट कर वो सब रातें गुज़ारती हूँ
जब तुम्हारी चीख़ें,
तुम्हारे घर के खंडहर,
तुम्हारे बागीचे के मसले, कुचले, अधमरे फूल
मुझे सोने नहीं देते.
अब अपने बगीचे में चैन से पानी देने नहीं देते. . .
* * *

तुम्हारा रिक्शा - 
जिसमें बैठ कर, मैं पढ़ाने जाया करती थी.
तुम्हारी बेटी, जिसकी प्यारी, बहुत शोख़ हँसी से
कभी बारामदे, कभी स्कूल के कमरे मेरे-
गूँजा, खिलखिलाया करते थे.
तुम्हारी बेटी, जो मेरी भी बेटी थी,
मगर, उससे माँ होने का अपना वायदा,
उस इक रोज़ मैंने तोड़ दिया.
औरजिसका ग़म भी करने की
मुझमें क़ुव्वत नहीं.

तुम्हारी पत्नी, जिसे ना जाने कितनी बार
मैंने बाड़ के इस पार से
सिंवैंयें बनाते देखा;
तुम्हारा इंतज़ार करते,
तुम्हें देर हो जाने पेसौ-सौ बार मरते देखा.
तुम्हारी पत्नी, जो तुम्हारी जान थी. 
और जिसे मेरे गुलाबी बारामासी के फूल
बहुत पसंद थे.
तुम्हारी पत्नी, जिसने कभी ईद, कभी होली के बहाने
अपने बच्चों को मेरे पास भेजा -
मेरी दुआओंमेरे दिल पे भरोसा करके...
और तुम देखते रहे.

तुम्हारी पत्नी,
जिसका भरोसा, मैंने उस दिन के बाद,
बेखटके कई बार तोड़ा है-
और तुम देखते रहे हो . . .
* * *

उस शाम के बाद,
कि जिसमे अपना सब कुछ तुमने भस्म होते देखा
मेरे लोगोंमेरे वोटोंमेरे धरम का असर देखा. . .
उस शाम के बाद भी तुम
शायद, मुझे अपने रिक्शे में बैठाते,
मुझे उस स्कूल तक छोड़ आते -
जहाँ अपनी बेटी को
मुझे तुम हर दिन सौपा करते थे,
उसके सुनहरे कल में,
मेरी और अपनी कोशिशों की परछाईं देखा करते थे
शायद . . . गुज़रे दिनों की खातिर,
तुम मुझे वहां तक छोड़ आते.
* * *

तुम वो भी भुला देते जो मैं भुला नहीं पाती,
जिसके रहते अपने भगवान् से आँखें नहीं मिला पाती,
जिसके साए में मुझे हर शाम - 
उस सफ़ेद, सुनहरे मंदिर की घंटियों का शोर
पागल किये देता है -
और तुम हो,
कि उसको सुन भी नहीं पाते.

और तुम नही सुन पाते
मेरी आवाज़ -
जो बिना लफ़्ज़ोंबिना बहानों के
बिना मेरे होंठों के जाने ,
तुमसे हर वक़्त
माफ़ी माँगा करती है,
मगर तुमसुन नही पाते.
* * *

मैं नही जानती वो कौन थे
जिन्होंने तुम्हारा घर लूटा
मैं जानती हूँ मगरकि मैंने उन्हें नहीं रोका.
उस सियाह रात के बाद हर रोज़
तुम्हारी सुबहों को बेनूर किया है मैंने,
तसल्ली तो क्या दी, तुम्हे लाचार किया है मैंने.
क्योंकि अब तक भी कहा नहीं मैंने ये ज़ोर से- 
कि इस दौर, इस दुनिया में
मेरा भी कोई हिस्सा नही,
अगर वो तुमसे मैं न बाँट सकूँ.
इस सियासत, इस सरकार पे मुझे भी ऐतबार नहीं
अगर तुम्हारे हक़, तुम्हारी ज़िन्दगी की कीमत
उनसे मैं ना मांग सकूँ.
और मैंने फिर आने दिया उन को तुम तक,
जिन ताक़तों ने तुम्हारे घर का चैन लूटा था.
* * *

मगर अब,
अब मैं भी नाराज़ होने लगी हूँ
बिलखने लगी हूँ तुम्हारी तरह,
अन्दर ही अन्दर टूट कर बिखरने लगी हूँ. 
अब मैं डरती हूँ
कि मेरे अन्दर का इंसान बिलकुल मर न जाये
ताक़त-सियासत के खेल में
मेरी ममता भी
पूरी तरह घुट न जाए.
मुझे वो दिन क़तई गंवारा न होगा-
जब मेरी बेटी मुझसे पूछेगी,
और उस की पाक़, साफ़,
सवाल भरी नज़रों से,
अपनी बुढ़ाती हुई, गुनाहगार
नज़रें न मिला पाउंगी मैं,
अपने दिल पे हाथ रख कर कह न पाऊँगी -
कि वतनपरस्ती और इंसानियत के माने क्या हैं . . .
तुम्हारी आवाज़ में आवाज़ मिलाना?
या तुम्हारी आवाज़ को
फिर एक बार,
शहर से दूर,
सैंकड़ों 'केम्पों' में दफ़न कर आना???
मेरी बेटी मुझसे ये एक रोज़ ज़ुरूर पूछेगी,
वतनपरस्ती और इंसानियत के माने क्या हैं.
तब मैं तुम्हें क़ुर्बान न कर पाऊँगी,
तुम्हारे सच को और झूठ न बना पाऊँगी,
मेरी बच्ची को तुम ही
अपने रिक्शे में स्कूल ले जाना.
तुम्हें अब ग़ैर ना ठहराने दूंगी किसीको,
अब और तुम्हें ना-उम्मीद न कर पाउंगी.
मेरे ख़ुदा को इस सब से सरोकार नही,
न सही,
मगर,
मेरी बेटी मुझसे ये एक दिन ज़ुरूर पूछेगी   . . .

*  *  *  *  *

Saturday, August 20, 2011

vaqt

वक़्त


मौसम भी क्या अजीब शह है मगर दुनिया में ,

फिर आता भी है तो कुछ लौटा हुआ-सा लगता नहीं है...


या उम्र की ही ख़ता है, यूँ गुज़रती जाती है -

के पिछला कुछ भी, गुज़रा हुआ-सा लगता नहीं है!


फिर ज़िन्दगी जो कुछ भी सिखा देती है बशर को,

जो चला था सीख के, उस से मिलता हुआ-सा लगता नहीं है...


जाने कौन सी क़िस्म के फूल खिलते हैं उस पार

इस तरफ भी जो बुझ गया, बुझा हुआ-सा लगता नहीं है.


नर्म जान के कभी, वक़्त ने झुकाया भी है कहीं,

मुझे कुछ अपना क़द, तो कम हुआ-सा लगता नहीं है. 

Am I too feminist, or is it just a class thing...?

With a slightly sheepish smile he explained, "she was talking to her husband." I didn't know whether to be grateful for even that slight sheepishness on my behalf, or to be angry at him for assuming a controller-controlled relationship between my husband and me :D

This was a friend of mine explaining to the ultra-chic saleswoman in a shop at a mall in Bangalore, why I refused to buy a handbag priced at 600 bucks and chose a bead necklace costing me 200 instead. We had spent some time looking for a suitable gift for a friend of mine - from ear-rings, necklaces to handbags and headphones. It was apparently a more embarrassing and less frequent experience for him to refuse to buy at malls because things were priced at rates higher than he could afford to pay. For me, it has been an inevitable part of my mall-experience whenever I've been coerced into entering one; it's also my husband's and my long-term loan-free-survival strategy! For we rely on research stipends to keep our brand-new li'l family of two afloat :) And at the time I wasn't even earning the PhD stipend I am entitled to now, so ours was a single-income unit. But, it was not just because of our low-income attitude towards life and family-life; it was also because of an ecological one, that I was discussing this purchase with my husband over my cellphone, asking for his okay. We both believe in the need to cut down on human-consumption and on keeping it as environment-friendly as we can. So we generally get both parties' approval when shopping for anything.

However, my friend, though completely aware of the chauvinism-free nature of the relationship between me and my once-boyfriend-now-husband, was more bothered with his ruined reputation as a capable customer than of my ruined reputation as an equal partner in my marriage. 

At first glance it seems like I am making a big deal out of something which concerns a third person who doesn't even have any permanent role to play in my life at all. But, I was irritated when I realised that he'd offered that statement as an explanation of our refusal to buy something we apparently liked and which was our first choice. You see, it is very simple: we might be shopping in a high-profile mall which of course represents the 'progress' Bangalore, and in turn the nation, has made, and the essential steps India is taking to become a global superpower (tell me, what stupid country can boast superpower-status if it were devoid of those highest achievements of human creativity...........shopping malls?!), but it is always absolutely acceptable that a woman, a wife cannot buy something she likes simply because her husband has said an irrevocable "No".

What is not acceptable is that someone who is part of this aspiring-superpower empire (read, a white-collar employee serving India Inc.) which finds its reason and achievement in increasing purchasing power of individuals, should be seen as being incapable of buying something simply because it is beyond his finances. It is important to be seen as a legitimate member of that class for which shopping malls are the cure of all ills - from bad moods, and lack of individuality to the need for entertainment, and upward social mobility. But it is unimportant if women associated with them - sisters, friends, mothers, aunts or daughters - are seen as unequal partners in their relationships with their partners/husbands/boyfriends.

Wednesday, October 27, 2010

tera saath

तेरा साथ
उकता चुके थे रंग-ओ-बू की शोख़ियों से हम,
आँखों से तेरी फिर ग़ुलाब देखना, मैं क्या कहूँ

बदहवास पाक़बाज़ों से हो मेरे ख़ुदा की ख़ैर,
पलीत बच्चों को वो तेरा चूमना, मैं क्या कहूँ...

Tuesday, July 27, 2010

link to my first published story

this is a story i wrote in march 2006 - on a news item i read in dec 2005 in The Hindu. it is the story of an adolescent dreamy, romantic girl in a village who does not get counted as a person - either at home, or in the census. it is about her journey through life - and what she finds in the end. . . 'ek an-gina naam'http://www.eklavya.in/pdfs/Sandarbh_68/78-90_An_Uncounted_Name.pdf


Sandarbh is a magazine on education - it published the story in its march-april 2010 issue. it is special for me as this was the first time something i wrote was published (except a letter to the editor in the good ole' days of Naidunia :). . .) - and guess what? it turned out to be a good omen!!

Monday, July 19, 2010

Reducing Poverty: Corporate-Style

"New Delhi: Reliance Industries Limited chief Mukesh Ambani has been chosen by the United Nations as a member of a key advocacy group on Millennium Development Goals (MDG), whose mandate includes finding ways to fight socio-economic evils such as poverty."
The Hindu, 19th July 2010; http://www.hindu.com/2010/07/19/stories/2010071954361200.htm


I see I never gave Reliance enough credit (unlike our banks that not only gave it credit, but didn't even mouth 'foul' on defaults...). In fact I've been avoiding using their SIM cards but now I suppose, I am honour-bound to buy'em - by the dozen...? After all, now that the esteemed and no-longer-estranged Ambanis (or did the recent Bharat-Milaap bring about the change in heart, Jeez, I really need to learn not to be so darned judgmental!) are turning public-benefactors I am reminded of all the good old companies who spend one rupee per product sold, on poor children's education and what not. I mean what self-respecting ex-social worker could now boycott Reliance? [BTW, these days, in my print moments, I go by 'writer' and rest of the time, by the glam title of 'educationist'. . .only maybe i should add - 'in the making'? Faced with the Ambanis' do-good avataar I would be ashamed of the least bit o' deceit, no?] In fact I suppose I should now stop advertising the fact that in a weak moment at a Social Work College, I actually participated in a protest protesting Reliance buying land in Raigarh district for a SEZ! Oh, the endless inevitable follies of idealistic youth....

But you see, I am sure the UN cannot be wrong - if they think a top corporate house of an HDI-in-the-pits country [Human Development Index - for the uninitiated, the industrialists, the politicians, the middle & upper classes, the 24-hr
sansanikhez-news-bite channels, the i-hate-depressing-news-ers. . .] can help reduce poverty, then I am sure their reliance on dear Mukesh isn't misplaced. I mean, I'd say the UN knows best. Just like the World Bank knows best. You see, what we stupid, short-sighted, anti-development, anti-national welfarist people do not really understand, is the power of 'the corporate unleashed' - free-market style. So if you were wondering what our Friedmanist Chicago School followers are up to these days, you'd find them at the UN offices - playing 'halve-poverty-or-die-tryin''. Only, I call it 'button-button-who's-got-the-button'. . .

But, maybe you know, what emboldened the UN-MDG people, was the Union Carbide victory. That surely proves that our corporate houses, and our tried-and-tested aid-granting, debt-dangling friends urging our government to do its best by its people, can get it do deliver on just about anything - i mean, on right up to justice for darling
old Warren Anderson, now can't they? Oh, c'mon now, don't tell me you'd grudge a pliant li'l drowning-in-debt third world country an attractive business climate!!

So, really, getting businessmen-who-mean-business to help us halve poverty is just the first step, and no mistake. (In fact, better still, let's halve the poor! I mean look at the way it was so terrifically stage-managed in Latin America - seems so much easier than tackling poverty, love, it'd be a shame not to consider it as an option!). With the World Bank helping us structurally adjust to neo-liberalism for last twenty years, we cannot fail. . .to get many more Ambanis
faring well - at the centre, at the UN, and at the rich man's roulette. . . .oh, the stock-market, you silly darling!





[That populations in certain regions of Latin America have gone down drastically as a result of brutal regimes and brutal economic-realignment programmes, is a fact garnered from Naomi Klein's Shock Doctrine. Other books that have contributed to my understanding of the Latin American situation and the dominant political-economic paradigm in the post-Chicago School-decades - i.e. the last 40 years - are: Eduardo Galeano's Open Veins of Latin America, Tariq Ali's Pirates of the Caribbean, and Susan George's and Fabrizio Sabelli's Faith and Credit: The Secular Empire of the World Bank]

Sunday, June 06, 2010

बुत


कैसे कह दूं के वो मेरा नहीं है?
इस शहर में रह्ता है, उसका
पर ये सवेरा नहीं है?
किस खून से सिंचे हैं ये दिल, इनमें
कुछ का है - सबका बसेरा नहीं है...

दूर मोहल्लों में पत्थर बरसा के आएँ हैं
किन लोगों ने अपने लड़कों को अवेरा नहीं है?
मकानों, दुकानों, और ज़मीन के नाम पर
मुझको बहकाए, वो खुदा मेरा नहीं है..!
खौफज़दा आंखों को नफ़रत का घर बतलायेगी
सियासत से बड़ा कोई यहाँ लुटेरा नहीं है।
बुझे चूल्हों से आख़री चिंगारी भी छीन लाए-
ताक़त का ये ख़्वाब तो सुनहरा नहीं है!

मेरा ख़ुदा ग़र इस शहर में रह्ता है,
तो किस बच्चे के चेहरे में वो चेहरा नहीं है?
या मैं समझूं के बस बुत ही हुए ख़ुदा तेरे मेरे
वरना, क्यों,
मेरे ख़ुदा का तेरे घर पे भी पहरा नहीं है??


Wednesday, June 02, 2010

सच्चाई


[ये कविता मैंने गुस्से में लिखी थी एक दिन, जब हमारे कॉलेज ने सरकारी शोर से डरकर हमारे अरुंधती रॉय की प्रेस-कांफ्रेंस में न जाने के प्रबंध कर दिए थे. मगर हम में से एक लड़की गयी अरुंधती को सुनने, जानने की वो क्या देख कर सुन कर, सीख कर आयी थी. और बाकी हम सब को बैठाकर कॉलेज में सरकार-राज, देश, और शिक्षा एवं पाठ्यक्रम में सुधार की बातें सुनायी गयीं - एक बेहतर और सही मायनों में लोकतान्त्रिक राष्ट्र और नागरिक बनाने की खातिर. हमें कुछ और करने से रोक कर, हमारी राय जाने बिना और हमारी इच्छा जानने के बावजूद. वहीं बैठकर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करने के लिए मैंने ये रास्ता इख़्तियार किया. हमें घेरने के लिए ये कांफ्रेंस रची गयी थी - वहां चल रही बातों पर ख़ास ध्यान देना कोई लाज़मी नही था. सो मैंने नही दिया.]

वो सर झुका के सब लिख रहे थे,
काग़ज़ों पे काग़ज़ भर रहे थे,
भर रहे थे -
काले, नीले अक्षरों से
बड़े, भारी अक्षरों से...
इन अक्षरों में छुपी कहानी
बड़े ज्ञान से ढंकी कहानी-
बाहर, दूर जो सच हो रही थी.
इन आँख-कानों की पहुँच से
दूर - लेकिन, घट रही थी।

यूं तरक़ीब से उसे दूर रख कर,
और कुछ का कुछ समझकर, ये
कमरों में चर्चा कर रहे थे.
ठन्डे, साफ़-सुथरे और चमकते -
कमरों में - बातें गढ़ रहे थे.
सुन रहे थे, लिख रहे थे, कह रहे थे -
नहीं चाहिए, जो अभी है नहीं चाहिए।
जिस तरह भी हो सके, ये सूरत बदलनी चाहिए
लुटे, थके, मन मार के जो
जी रहें हैं -
छोड़ना उनको नहीं है, उनकी
बात करनी चाहिए,
ज़रूर, सारी करनी चाहिए...

मगर, बाहर कहानी बढ़ रही थी -
इन बातों, किताबों से अछूती,
जूझती, अकुलाती, चीखती, झुठलाती,
और इन से कुल परे।
एक औरत कह रही थी -
कि कहानी बढ़ रही थी -
इन तमाशों से अछूती,
और दर्द से बिलबिलाती...

कमरे में बस एक लड़की
जलते सवाल से आँखों वाली-
वो जैसे झुंझलाई हुई सी,
उलझी, परेशान-सी आँखों वाली,
भरे कमरे से निकल कर
जाल बातों के कुतर कर,
भाग जाना चाहती थी।
वो सच्चाई की बात नहीं, सच्चाई
सुनना चाहती थी।
बदलाव जिस से आ सके-
वही अपनी, आवाज़ पाना चाहती थी
कहानी - जो किताबों तक ही बस ये रखना चाहते थे,
बातों की हवाओं में, बस उड़ा देना चाहते थे,
वो वही सुनना चाहती थी।
उस औरत की हर कहानी...

गुस्साई-सी सब आँखें,
और हैरान-सी कुछ आँखें
पीछा करती रहीं उसका,
नियम, कानून और बंदिशें सब
पीछा करती रहीं उसका
लेकिन, कहाँ उसका, वहां बस
कुछ सवालों का साया था - सुलगता.
सुलगता, संभलता, दहकता.

सो, 'बातों वाले', सवाल लेके, कमरे में
ही लौट आये -
सवालों पर अब 'बातें' होंगी. . .
वो लड़की, उसके साये भी सब-
इन के लिए कहानी बन गए हैं, 
इनकी बातों का हिस्सा बन गए हैं।

और बाहर? बाहर,
लड़की और उसके साये भी सब-
लड़ाई का हिस्सा बन गए हैं।
जूझती, अकुलाती, चीखती, झुठलाती-
हर औरत का हिस्सा बन गए हैं।
इन तमाशों से अछूती...
और इन से कुल परे।


* * * * *

Sunday, April 18, 2010

tuu...kuch aur bhii hai

तू. . .कुछ और भी है

मेरा प्यार तो है तू, मगर कुछ और भी है -
तू - कुछ और भी है...

कहीं छुपे पहाड़ी फूल की खुशबू है,
या खामोश लहरों का प्यारा-सा खेल,
नर्म हरी कोंपलों को सोचती नज़र है
या नन्हें परों को दिया आसमां का वादा...
किसी दर्द को सहलाता हाथ है
या उसका जवाब तलाशते क़दम...

तेरी आवाज़ में शबनम की नमी है
या किसी ख़ास ख्वाब का नशा,
इन आँखों में ठहरी कोई रोशनी है
या बहते पानी-सा तेरा ही वजूद?

जो भी है तू, जो कुछ भी तुझमें है
कुछ मेरी मंजिल है, कुछ मेरी राह-सा,
कहीं मेरे सवालों के जवाब-सा, तो
कहीं मचलते मेरे सवालों के साये-सा

या शायद,
सिर्फ, वो कुछ मस्त सुब्ह की रोशनी
जिसमें मेरा होना साफ़ नज़र आता है।

Monday, April 05, 2010

shikshaa kaa adhikaar: aage paDhaii yaa laDaaii

शिक्षा का अधिकार: आगे पढ़ाई या लड़ाई

'शिक्षा का अधिकार कानून, २००९' अब लागू हो जाएगा। एक तरफ समाज के कई तबकों, एनजीओ आदि में उत्साह, उम्मीद है तो दूसरी तरफ एक छोटे गुट में हताशा और गुस्सा भी है. इन प्रतिक्रियाओं, और इनके बीच के फर्क पर अगर नज़र डालें तो इस डर की गंभीरता समझ में आने लगेगी कि आगे कहीं शिक्षा की सारी लड़ाई इस कानून के क्रियान्वयन की चिंता तक ना सिमट कर रह जाए. क्या यह बढ़िया-सा सुनाई देने वाला नाम ही हमारा उद्देश्य था? इस अधिकार का व्यापक अर्थ, इसे अर्थ और दिशा देने वाली सोच, बुनियादी नीतियां क्या महत्त्वपूर्ण नहीं हैं? क्या यह कानून सारे बच्चों के लिए एक समान गुणवत्ता वाली पढाई का इंतजाम कर सकेगा? क्या इससे पिछड़े या गरीब बच्चों की पढाई पूरी तरह मुफ्त हो पायेगी? क्या ये बच्चे १४ साल की उम्र में ज्ञान के नाम पर जो कुछ लेकर, स्कूलों से निकलेंगे वह इन बच्चों, परिवारों, या समुदायों की ज़िन्दगी सुधार पायेगा?

मगर जिनसे हम इन सवालों के जवाबों की उम्मीद कर सकते हैं, जो विभिन्न संगठन, शिक्षाविद, कार्यकर्ता आदि इस अधिकार के लिए प्रयासरत रहें हैं वे आपस में बुरी तरह से वैचारिक रूप से बंटे हुए हैं. एक गुट है जिसने विश्व बैंक और वैश्विक बाज़ार को विजयी मान लिया है - वह अब वही करने में जुटा है जो इनकी शर्तों/नियमों के दायरे में रह कर भारत के बच्चों के लिए किया जा सकता है. दूसरा गुट मानता है कि न सिर्फ बाज़ार हमेशा जन-विरोधी नहीं होता, बल्कि आज उसके हस्तक्षेप, उसके सहारे के बिना सुविधा-विहीन तबकों के लिए कुछ भी लाभ बटोर पाना नामुमकिन है -आखिर सरकार दे ही क्या सकती है? तीसरा गुट है जो यह कह रहा है कि शिक्षा, जल-जंगल-ज़मीन कि तरह एक संसाधन है जिसे किसी लोकतंत्र में खरीद-फरोख्त की वस्तु नहीं बनने देना चाहिए.

पहले दोनों गुट शायद भूल रहें हैं कि छली गयी जनता की संगठित शक्ति, उसकी राजनैतिक समझ और विद्रोह में बाज़ार और सरकार के विकल्प की सम्भावना हमेशा मौजूद होती है. वो यह भी भूल रहें हैं कि बुनियादी नीतियों से न उलझकर वो शिक्षा को गैर-राजनैतिक करार देने की कोशिश कर रहें हैं. शिक्षा गैर-राजनीतिक मुद्दा कभी नहीं हो सकती. क्योंकि यह उन बुनियादी मापदंडों में से है जो किसी व्यक्ति या समुदाय के जीवन की गुणवत्ता तय करते हैं, उनकी सामाजिक-आर्थिक तरक्की, अपने आस-पास की दुनिया और समाज में उनकी भागीदारी और आर्थिक-राजनीतिक प्रतिष्ठा एवं ताक़त निर्धारित करते हैं. गुणवत्ता अगर पर्याप्त साधनों पर निर्भर है तो शिक्षानीति क्या आर्थिक नीति से निर्धारित नहीं होगी? तब क्या शिक्षा नीति और व्यवस्था को पिछले दो दशकों की हमारी आर्थिक एवं राजनीतिक विचारधारा से अलग करके देखना सही या संभव होगा?

इस कानून में आखिर दिक्कतें क्या हैं? यह साफ़ तौर पर शिक्षा को मुफ्त घोषित नहीं करता और न ही, अधोसंरचना या गुणवत्ता के निम्नतम मानक, मापदंड स्पष्ट करता है। इसी तरह शिक्षकों की शैक्षिक और प्रोफेशनल अर्हताएं अलग-अलग निर्धारित करने के लिए भी यह राज्यों को आज़ादी देता है. यह बहुपरतीय शिक्षा व्यवस्था को और मज़बूत करता है, और स्कूलों के निरीक्षण, विनिमयन का भी कोई प्रबंध नहीं करता. इन सब हथकंडों से यह बाजारीकरण-निजीकरण के एजेंडे की मदद कर रहा है. क्लासों, शिक्षकों की संख्याओं के खेल डीपीईपी और सर्व शिक्षा अभियान भी खेल चुके हैं. उनका बखान करने की यहाँ कोई ज़रूरत नहीं है. सवाल यह है कि जिस तरह विश्व बैंक ने वो कार्यक्रम चलाये थे उसी तरह क्या वो अपनी शर्तों पे भारत के केंद्रीय कानूनों और मौलिक अधिकारों की रूपरेखा भी तैयार करेगा? उसके खेल भारत के सबसे कमज़ोर या गरीब लोगों के कल्याण के लिए रचे जाते हैं या उन्हें फुसलाने, चुप कराने के लिए? केंद्र सरका जान बूझ कर सरकारी स्कूल व्यवस्था की गुणवत्ता और संख्या को नुकसान पहुंचाती रहीं हैं, और साधन से ज्यादा इच्छाशक्ति की कमी की शिकार हैं, या शायद सच में ही यह लोकतंत्र [भावी महाशक्ति!] अपने लोगों के मूल अधिकारों की सुरक्षा में अक्षम है?

इन सवालों के जवाब पर जहाँ एक ओर शिक्षा व्यवस्था का अस्तित्व खड़ा है वहीं दूसरी ओर इन्हीं पर संगठनों, शिक्षाविदों, बुद्धिजीवियों के बीच बुरी तरह से तलवारें खिंचीं हैं. इस सारे में निजी क्षेत्र कितना फायदे में हैं, कहाँ तक ज़िम्मेदार है इस सवाल पर भी कोई एकराय नहीं है.
हमारी शिक्षा व्यवस्था की दुर्गति, उसकी अविश्वसनीयता के मूल कारण क्या हैं? इनकी जड़ में कौन-सी सोच, विचारधारा, व नीतियां काम करती रहीं हैं? शिक्षा से वंचित रखा जाना किस तरह एक लोकतंत्र में पिछड़े तबकों के लिए अपनी भागीदारी और हकों से वंचना का कारण बनता है?

क्या ये सच नहीं कि शिक्षा में समानता और सबके लिए अच्छी शिक्षा जैसे मूल्यों को आधार बनाना न तो बाज़ार के हितों में हो सकता है न उसके नफ़े-नुकसान के नियमों के चलते संभव ही? क्या राजनैतिक संघर्ष के बिना नवउदारवाद या वैश्वीकरण के चुंगल से शिक्षा को बचाया जा सकता है? क्या ऐसा किये बिना भारत की सबसे कमज़ोर, सबसे असहाय बच्ची को बढ़िया और पूरी शिक्षा का अधिकार और सम्मान मिल सकता है? क्या बज़ार ऐसी सोच, सामर्थ्य उस बच्ची में पैदा करने को कटिबद्ध हो सकता है जिससे वो न सिर्फ आत्मनिर्भर बन सके बल्कि पूरी समझ के साथ अपने आस-पास के समाज और व्यवस्था पर सवाल खड़े कर सके, उन में सार्थक रूप से भागीदार बन सके? क्या ये सब कुछ कोई भी सरकारी स्कूल नवउदारवादी/पूंजीवादी अर्थनीति और विश्व बैंक के संरचनात्मक समायोजन कार्य्रक्रम और शर्तों के रहते कर सकता है? क्या लोकतंत्रीकरण और विकेंद्रीकरण के बिना किसी तरह निम्न या मध्यम वर्गों के लिए स्कूलों को जवाबदेह बनाया जा सकता है?

लोकतंत्रीकरण, विकेंद्रीकरण और जनता का सशक्तिकरण - ये तीनों जब सार्थक तरीके से हो पाएंगे तब हम शिक्षा ही क्यों, इसके साथ स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा आदि क्षेत्रों में भी सबसे सुवुधाविहीन तबकों के मूलभूत हक सुनिश्चित कर पाएंगे. सरकारी तंत्र यदि सरकार और नौकरशाही के भरोसे बिना विनियमन और बिना 'सोशल औडिट' के छोड़ दिया जाये तो क्या हश्र होता है हम जानते हैं. ऐसा तो नहीं है कि १९९१ की 'नयी आर्थिक नीति' के पहले हमारे यहाँ ज़मीनी स्तर पर बहुत समानता, या समाजवाद था. मगर इसके बाद से संवैधानिक मूल्यों का पालन और मुश्किल हो गया है; ताकतवर वर्गों को बेहतर संस्थागत रास्ते और बहाने मिल गए हैं अपना स्वार्थ साधने के.

यह कानून इन्हीं नए संस्थागत बहानों का एक और नतीजा है. २५% आरक्षण का जिस प्रावधान पर हम अभी मुग्ध हो रहें हैं वो दरअसल निचले सामाजिक-आर्थिक तबके को आपस में विभाजित तो करेगा ही; उनकी निजी स्कूलों में भर्ती होने की होड़ को इसका सबूत ठहराएगा कि अब तो गरीबों, पिछड़े तबकों के बच्चों के नाम पर भी सरकारी स्कूल व्यवस्था को जिंदा रखना मुमकिन नहीं है! मगर ये काम निजी क्षेत्र कर सकता है इस धोखे में रहना भी शिक्षा के अधिकार के लिए घातक ही सिद्ध हो रहा है. उनका काम अपना बिज़नेस चलाना और मुनाफा कमाना है; उनके पास वो इच्छाशक्ति या संसाधन कभी नहीं हो सकते जो एक कल्याणकारी राज्य में सार्वजनिक क्षेत्र जुटा सकता है - बशर्ते उसकी प्रथामिकतायों का हिसाब-किताब जन-विरोधी ना हों.

तो शिक्षा के मुद्दे पर दो तरह की सोच ले कर काम चल रहा है. उसे राजनैतिक संघर्ष और गैर-राजनैतिक सामाजिक मुद्दा समझने वाले दोनों गुटों के बीच जो वैचारिक दूरी, और संवाद एवं समझ का अभाव है उस से किसी तरह निजात पाना है. क्योंकि अगर इन दोनों के अंतिम उद्देश्य समान हैं, तो यह दूरी सिर्फ इनके रास्ते ही नहीं अलग कर देती, बल्कि इसका भरपूर फायदा शासक वर्ग को मिलता है - जब ये दोनों गुट कई मंचों और मुद्दों पे एक दूसरे के खिलाफ खड़े पाए जाते हैं. लम्बे राजनैतिक संघर्षों में जुटे गुटों को भी मानना होगा कि बुनियादी बदलावों की उम्मीद या इंतज़ार में ही समय नहीं गुज़ारा जा सकता - आज से भी गुज़रना और निपटना ज़रूरी है; मौजूदा हालात में जो बेहतरीन पढ़ाई मुहैया कराई जा सकती है पिछड़े तबकों के बच्चों को, वो देने-दिलवाने का काम अगर कई संस्थाएं, संगठन कर रहें हैं तो ये आज की ज़रूरतें और मुश्किलात देखते हुए सही है, लाज़मी है. मगर ये काम भी पूरी समस्या को जड़ समेत समझते हुए किया जाना चाहिए; शिक्षा के मुद्दे को समझने या इससे निपटने के लिए अगर इसे टुकड़ों में बांटना, सरल बनाना ज़रूरी है तो इस सरलता के धोखे में आने से बचना भी उतना ही ज़रूरी है.

ज़ाहिर है कि बढ़ते क्रम में केंद्रीकृत और वैश्वीकृत होती दुनिया और एक विकेंद्रीकृत शिक्षा-व्यवस्था की ज़रूरतों के बीच बुनियादी द्वन्द हैं, तनाव है. इन्हें स्वीकार करना और सुलझाना बेहद ज़रूरी है. किसी भी देश में एक विकेंद्रीकृत शिक्षा व्यवस्था जनता की मदद और भागीदारी के बिना, या सार्वजनिक क्षेत्र से बाहर न बन सकती है, पनप सकती है. फिर विकेंद्रीकरण न आसान है, न कोई जादू की छड़ी जिसे फेर देने से बुरी शिक्षा से छुटकारा हो जायेगा. आम जन की तैय्यारी भी होनी चाहिए ऐसे फैसलों में भागीदार बनाने की; तो ऐसे स्वतंत्र 'थिंक-टेंक' तैयार होने चाहिए और उनके लिए ये संस्थागत जगह होनी चाहिए कि वे शिक्षा-सम्बन्धी मुद्दों पे विचार कर सकें, आम जनता से इन पर विमर्श कर सकें, देश और समाज में ऐसी बातचीत एवं विमर्श को दिशा दे सकें, उसका नेतृत्व कर सके.

बाज़ार की ज़रुरत है उपभोक्ता तैयार करना, और हर स्तर पर कामगार तैयार करना; शासक वर्ग की ज़रुरत है शासित तैयार करना - जो शासकों के फैसलों, नियमों, संस्थाओं पर सवाल न करें, बस उन से बंध कर चलें. तो फिर सचेत उपभोक्ता, सचेत नागरिक, सचेत इंसान कैसे तैयार होंगे? इस अर्थ में क्या शिक्षा या ज्ञान के मायने और भूमिका डिग्री, नौकरी, सामाजिक-प्रतिष्ठा से कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण और दमदार नहीं हो जाते? क्या तब हमारे लिए ये ज़रूरी नहीं हो जाता कि हम एक वैचारिक और राजनैतिक विकल्प तलाशें? क्या इस विकल्प का एक पहलू शिक्षा के मौजूदा अधिकार के नकलीपन को पहचानना और शिक्षा के अधिकार का जनवादी, बाल-पक्षी रूप तैयार करना नहीं है?


[इस लेख का एक बहुत छोटा रूप ४ अप्रैल २०१० की 'जनसत्ता' में छपा था, और यहाँ छपा पूरा लेख ऐसा का ऐसा ही 'अनौपचारिका' के मई-जून संयुक्तांक में छपा है। http://www.jansattaraipur.com/]