अब्बा के बारे में वैसे तो लगभग रोज़ ही सोचती हूँ, आज ज़्यादा याद आ रही है। मुझे याद है कि जब मैं नवी क्लास में थी तो अम्मी हज के लिए गयी थीं। ओह ये बताना तो भूल ही गयी कि मैं अपने दादा-दादी की बात कर रही हूँ, माँ और पापा की नहीं। हाँ, तो अम्मी गयीं हज पर और मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि सिर्फ़ वो क्यों गयीं। अब्बाजी क्यों नहीं गए? वो तो बाक़ायदा पांच दफ़ा नमाज़ पढ़ने वाले आदमी थे।?
तब माँ ने वो बात बताई जिसको सुनकर मैं अब्बाजी की और भी मुरीद हो गयी। और जिसे सोच-सोच कर मुझे रोज़ अपने आस-पास जी रहे कई लोगों पर बड़ा गुस्सा आता है। क्योंकि जो बात उनके लिए सरल सी, और ज़रा में समझ में आने वाली, थी, वो दुनिया को समझ में आने में शायद धरती को ही सात जनम लेने पड़ जायेंगे!
अब्बाजी का जवाब था कि, बेटा, अल्लाह तो सब जगह है, उसके लिए हज पर जाने की क्या ज़रूरत? यहीं रह कर नमाज़ पढ़ ली, क़ाफ़ी है!
अब तुम लड़ते रहो कि मंदिर कहाँ बनाना है, और मस्जिद कहाँ बनानी है। जिसको धर्म और भगवान् समझ में आते हैं, आते हैं। बाकियों को लाख मंदिर मस्जिद घूम घूम कर भी नहीं आयेंगे। ये वो आदमी था जिसके लिए पूरे मोहल्ले के दरवाज़े खुले थे। मजाल थी कि कोई शादी हो, किसी के यहाँ बच्ची पैदा हो, या कोई बीमार हो और मास्टर जी (अब्बा क़ुरान भी पढ़ाते थे, और उर्दू स्कूल में मास्टर भी थे) को बुलावा ना आये। उनके बनाये तावीज़ सारे मोहल्ले के बच्चे पहने घूमते थे। क्या हिन्दू, क्या मुस्लिम, क्या मराठी, क्या सिन्धी. . . और उस समय एक मोहल्ले में सब मिल जुल कर रह भी लेते थे। दरअसल एक वक़्त था कि बस एक अब्बा-अम्मी का ही परिवार था वहाँ, जो मुसलमान था। मगर कभी किसी को कोई डर, कोई उलझन नहीं हुयी इस बात पर।
हाँ, अब बात और है। अब तो इंदौर ही वो नहीं रहा। धीरे-धीरे मराठी मोहल्ला कम पैसे वाले मुसलमानों का मोहल्ला हो गया है। जिनके बच्चे कभी दिन दिन भर एक दूसरे के घर पर बैठे टी वी देखा करते थे, वही हिन्दू मुसलमान अब एक दूसरे के घरों पर छुप छुप कर पत्थरबाज़ी करते हैं।
ख़ैर, मेरे बचपन के इंदौर के खो जाने का ग़म किसी और दिन सही। आज तो अब्बाजी की ही बात करती हूँ। तो अभी अभी फेसबुक पर एक खबर पढ़ी कि कहीं लोगों ने किसी मंदिर में ग्यारह लाख का साढ़े पांच किलो घी चढ़ाया है. . . वो घी सड़कों पर बहा जा रहा है। आँखों के सामने भीख मांगते और होटलों, हलवाइयों की दुकानों में आस से ताकते हज़ारों बच्चों की तस्वीरें घूम गयीं। ये वही लोग हैं न जो न बाइयों को तनख्वाह देते हैं समय से, न ग़रीब को इंसान समझते हैं। जो किसी भिखारी को अठन्नी दे कर साल भर का पुण्य हो गया समझते हैं। वो बकरे भी याद आ गए जो हाजियों की बरक़त की ख़ातिर हर मिनिट कटते हैं क़ाबे पर।
बस इतना है हमारा धर्म, ईमान। इसीलिए अब्बा याद गए। मोहल्ले भर के बच्चों को - और वो कोई अमीरों का मोहल्ला नहीं था - बताशे बांटे बिना उनकी न ईद मनती, न नमाज़ पूरी होती। ये और बात है कि उनके ही ख़ानदान को न कभी उनका ख़ुदा दिखा, न उनका ईमान ही पल्ले पड़ा। न अपने लिए पैसे जोड़े, न ऊपर वाले को कभी कोई रिश्वत दी - अब्बा इंसान थोड़े ही थे, बस सर से पाँव तक एक बड़ा-सा दिल थे। उस दिल में उनके अल्लाह मियां जितने आराम से फ़िट हो जाते थे, उतने ही आराम से दुनिया भर के लोग, जहां भर के बेटे बेटियाँ भी समा जाते थे। पांच बार नमाज़ पढ़ने वालों के जितने सीने तन जाते हैं, उतने ही दिल भी तंग हो जाया करते हैं, मगर अब्बाजी की तो नमाज़ ही कुछ अलग क़ायदे की थी। जितनी नमाज़ पढ़ी उतना दिल और आसमान होता गया उनका। जब गए तो ऐसा लगा कि सर से आसमान सिर्फ़ नहीं उठ गया, मराठी मोहल्ले से, और उस घर से आसमान का रिश्ता और पहचान ही ख़त्म हो गयी।
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