Tuesday, March 16, 2010

mahfuuz

महफूज़


ज़मीर-ओ-जज़्बात और चाहत की सच्चाई,
ईमान की ताक़त और फ़नों की रानाई,
इनको भी मिट जाने दे, खो जाने दे -
के ऐसे ख़्वाबों की ज़माने को ज़रुरत ही नहीं।
ख़्वाबगाहों की जो क़ीमत है, जवानी की नहीं;
अपने कुछ ख़ास ख्वाबों को पलकों पे पनाह दे,
बज़ार की इजाज़त नहीं, इंसान की हिम्मत नहीं।

1 comment:

medusa said...

Reva,
you are much more than my wildest imagination,your blog,U r poet too.