सच्चाई
[ये कविता मैंने गुस्से में लिखी थी एक दिन, जब हमारे कॉलेज ने सरकारी शोर से डरकर हमारे अरुंधती रॉय की प्रेस-कांफ्रेंस में न जाने के प्रबंध कर दिए थे. मगर हम में से एक लड़की गयी अरुंधती को सुनने, जानने की वो क्या देख कर सुन कर, सीख कर आयी थी. और बाकी हम सब को बैठाकर कॉलेज में सरकार-राज, देश, और शिक्षा एवं पाठ्यक्रम में सुधार की बातें सुनायी गयीं - एक बेहतर और सही मायनों में लोकतान्त्रिक राष्ट्र और नागरिक बनाने की खातिर. हमें कुछ और करने से रोक कर, हमारी राय जाने बिना और हमारी इच्छा जानने के बावजूद. वहीं बैठकर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करने के लिए मैंने ये रास्ता इख़्तियार किया. हमें घेरने के लिए ये कांफ्रेंस रची गयी थी - वहां चल रही बातों पर ख़ास ध्यान देना कोई लाज़मी नही था. सो मैंने नही दिया.]
वो सर झुका के सब लिख रहे थे,
काग़ज़ों पे काग़ज़ भर रहे थे,
भर रहे थे -
काले, नीले अक्षरों से
बड़े, भारी अक्षरों से...
इन अक्षरों में छुपी कहानी
बड़े ज्ञान से ढंकी कहानी-
बाहर, दूर जो सच हो रही थी.
इन आँख-कानों की पहुँच से
दूर - लेकिन, घट रही थी।
यूं तरक़ीब से उसे दूर रख कर,
और कुछ का कुछ समझकर, ये
कमरों में चर्चा कर रहे थे.
ठन्डे, साफ़-सुथरे और चमकते -
कमरों में - बातें गढ़ रहे थे.
सुन रहे थे, लिख रहे थे, कह रहे थे -
नहीं चाहिए, जो अभी है नहीं चाहिए।
जिस तरह भी हो सके, ये सूरत बदलनी चाहिए
लुटे, थके, मन मार के जो
जी रहें हैं -
छोड़ना उनको नहीं है, उनकी
बात करनी चाहिए,
ज़रूर, सारी करनी चाहिए...
मगर, बाहर कहानी बढ़ रही थी -
इन बातों, किताबों से अछूती,
जूझती, अकुलाती, चीखती, झुठलाती,
और इन से कुल परे।
एक औरत कह रही थी -
कि कहानी बढ़ रही थी -
इन तमाशों से अछूती,
और दर्द से बिलबिलाती...
कमरे में बस एक लड़की
जलते सवाल से आँखों वाली-
वो जैसे झुंझलाई हुई सी,
उलझी, परेशान-सी आँखों वाली,
भरे कमरे से निकल कर
जाल बातों के कुतर कर,
भाग जाना चाहती थी।
वो सच्चाई की बात नहीं, सच्चाई
सुनना चाहती थी।
बदलाव जिस से आ सके-
वही अपनी, आवाज़ पाना चाहती थी
कहानी - जो किताबों तक ही बस ये रखना चाहते थे,
बातों की हवाओं में, बस उड़ा देना चाहते थे,
वो वही सुनना चाहती थी।
उस औरत की हर कहानी...
गुस्साई-सी सब आँखें,
और हैरान-सी कुछ आँखें
पीछा करती रहीं उसका,
नियम, कानून और बंदिशें सब
पीछा करती रहीं उसका
लेकिन, कहाँ उसका, वहां बस
कुछ सवालों का साया था - सुलगता.
सुलगता, संभलता, दहकता.
सो, 'बातों वाले', सवाल लेके, कमरे में
ही लौट आये -
सवालों पर अब 'बातें' होंगी. . .
वो लड़की, उसके साये भी सब-
इन के लिए कहानी बन गए हैं,
इनकी बातों का हिस्सा बन गए हैं।
और बाहर? बाहर,
लड़की और उसके साये भी सब-
लड़ाई का हिस्सा बन गए हैं।
जूझती, अकुलाती, चीखती, झुठलाती-
हर औरत का हिस्सा बन गए हैं।
इन तमाशों से अछूती...
और इन से कुल परे।
[ये कविता मैंने गुस्से में लिखी थी एक दिन, जब हमारे कॉलेज ने सरकारी शोर से डरकर हमारे अरुंधती रॉय की प्रेस-कांफ्रेंस में न जाने के प्रबंध कर दिए थे. मगर हम में से एक लड़की गयी अरुंधती को सुनने, जानने की वो क्या देख कर सुन कर, सीख कर आयी थी. और बाकी हम सब को बैठाकर कॉलेज में सरकार-राज, देश, और शिक्षा एवं पाठ्यक्रम में सुधार की बातें सुनायी गयीं - एक बेहतर और सही मायनों में लोकतान्त्रिक राष्ट्र और नागरिक बनाने की खातिर. हमें कुछ और करने से रोक कर, हमारी राय जाने बिना और हमारी इच्छा जानने के बावजूद. वहीं बैठकर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करने के लिए मैंने ये रास्ता इख़्तियार किया. हमें घेरने के लिए ये कांफ्रेंस रची गयी थी - वहां चल रही बातों पर ख़ास ध्यान देना कोई लाज़मी नही था. सो मैंने नही दिया.]
वो सर झुका के सब लिख रहे थे,
काग़ज़ों पे काग़ज़ भर रहे थे,
भर रहे थे -
काले, नीले अक्षरों से
बड़े, भारी अक्षरों से...
इन अक्षरों में छुपी कहानी
बड़े ज्ञान से ढंकी कहानी-
बाहर, दूर जो सच हो रही थी.
इन आँख-कानों की पहुँच से
दूर - लेकिन, घट रही थी।
यूं तरक़ीब से उसे दूर रख कर,
और कुछ का कुछ समझकर, ये
कमरों में चर्चा कर रहे थे.
ठन्डे, साफ़-सुथरे और चमकते -
कमरों में - बातें गढ़ रहे थे.
सुन रहे थे, लिख रहे थे, कह रहे थे -
नहीं चाहिए, जो अभी है नहीं चाहिए।
जिस तरह भी हो सके, ये सूरत बदलनी चाहिए
लुटे, थके, मन मार के जो
जी रहें हैं -
छोड़ना उनको नहीं है, उनकी
बात करनी चाहिए,
ज़रूर, सारी करनी चाहिए...
मगर, बाहर कहानी बढ़ रही थी -
इन बातों, किताबों से अछूती,
जूझती, अकुलाती, चीखती, झुठलाती,
और इन से कुल परे।
एक औरत कह रही थी -
कि कहानी बढ़ रही थी -
इन तमाशों से अछूती,
और दर्द से बिलबिलाती...
कमरे में बस एक लड़की
जलते सवाल से आँखों वाली-
वो जैसे झुंझलाई हुई सी,
उलझी, परेशान-सी आँखों वाली,
भरे कमरे से निकल कर
जाल बातों के कुतर कर,
भाग जाना चाहती थी।
वो सच्चाई की बात नहीं, सच्चाई
सुनना चाहती थी।
बदलाव जिस से आ सके-
वही अपनी, आवाज़ पाना चाहती थी
कहानी - जो किताबों तक ही बस ये रखना चाहते थे,
बातों की हवाओं में, बस उड़ा देना चाहते थे,
वो वही सुनना चाहती थी।
उस औरत की हर कहानी...
गुस्साई-सी सब आँखें,
और हैरान-सी कुछ आँखें
पीछा करती रहीं उसका,
नियम, कानून और बंदिशें सब
पीछा करती रहीं उसका
लेकिन, कहाँ उसका, वहां बस
कुछ सवालों का साया था - सुलगता.
सुलगता, संभलता, दहकता.
सो, 'बातों वाले', सवाल लेके, कमरे में
ही लौट आये -
सवालों पर अब 'बातें' होंगी. . .
वो लड़की, उसके साये भी सब-
इन के लिए कहानी बन गए हैं,
इनकी बातों का हिस्सा बन गए हैं।
और बाहर? बाहर,
लड़की और उसके साये भी सब-
लड़ाई का हिस्सा बन गए हैं।
जूझती, अकुलाती, चीखती, झुठलाती-
हर औरत का हिस्सा बन गए हैं।
इन तमाशों से अछूती...
और इन से कुल परे।
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4 comments:
acchi hai.tum itna lamba lamba kasie sochti ho...l like it!
its so realistic. real more than its title. iske kuch lines to bahut hi touchy hain. tum sachmuch acha likhti ho. you have so much foldings within your own.
thats great.
i hope there is some more foldings that hasn't been revealed even.
रेवा तुम्हारी कविता पढ़ी। बहुत गहरी बात है इसमें । मुझे लगा जैसे तुम संदर्भ में प्रकाशित कहानी को ही कविता में बदलकर कह रही हो। खैर। पर एक बात कहना चाहता हूं कविता आखिर में आकर कुछ बिखर सी जाती है। इसके आखिरी स्टैंजा पर फिर से विचार करके देखो। मुझे लगता है उसे तुम्हें फिर से लिखना चाहिए। मुझे यह भी लगा कि तुम्हारी कहानी जितनी सहजता से चलती है,कविता उतना ही उलझाती है। सच कहूं तो पूरी कविता को दो बार बहुत ध्यान से पढ़ा तब जाकर उसे समझ पाया। शुभकामनाएं।
great! tumhari kahani bhi padi aur kavita bhi.tum itna sochti ho aur alag hatkar,ye malum nahi tha.aur wahan mumbai me rahakar bhi itna soch rahi ho padai k sath! its nice. only some people can manage this.Kavita ko 2 ya 3 bar padne per achhi tarah samajh me ayi. 'Tarkib se use door rakhkar....' se lekar 'jarur,sair karni chaihiye....' tak ki lines thoda uljha rahi he. usper fir se soch sakti ho. well,All the best for next kavita ya kahani.
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