Sunday, June 06, 2010

बुत


कैसे कह दूं के वो मेरा नहीं है?
इस शहर में रह्ता है, उसका
पर ये सवेरा नहीं है?
किस खून से सिंचे हैं ये दिल, इनमें
कुछ का है - सबका बसेरा नहीं है...

दूर मोहल्लों में पत्थर बरसा के आएँ हैं
किन लोगों ने अपने लड़कों को अवेरा नहीं है?
मकानों, दुकानों, और ज़मीन के नाम पर
मुझको बहकाए, वो खुदा मेरा नहीं है..!
खौफज़दा आंखों को नफ़रत का घर बतलायेगी
सियासत से बड़ा कोई यहाँ लुटेरा नहीं है।
बुझे चूल्हों से आख़री चिंगारी भी छीन लाए-
ताक़त का ये ख़्वाब तो सुनहरा नहीं है!

मेरा ख़ुदा ग़र इस शहर में रह्ता है,
तो किस बच्चे के चेहरे में वो चेहरा नहीं है?
या मैं समझूं के बस बुत ही हुए ख़ुदा तेरे मेरे
वरना, क्यों,
मेरे ख़ुदा का तेरे घर पे भी पहरा नहीं है??


2 comments:

Pragya said...

Nice. Wese to puri kavita hi sochne per majboor karti he per last ki 4 lines jyada achhi lagi. Keeps on sending. ho sakta he ki tum se 'prerit' hokar hum fir se likhna shuru kar de.

वैभव Vaibhav said...

Hey,
I never knew you were such a fantastic poet! Long time since I read such good stuff!!

Vaibhav