Saturday, August 20, 2011

vaqt

वक़्त


मौसम भी क्या अजीब शह है मगर दुनिया में ,

फिर आता भी है तो कुछ लौटा हुआ-सा लगता नहीं है...


या उम्र की ही ख़ता है, यूँ गुज़रती जाती है -

के पिछला कुछ भी, गुज़रा हुआ-सा लगता नहीं है!


फिर ज़िन्दगी जो कुछ भी सिखा देती है बशर को,

जो चला था सीख के, उस से मिलता हुआ-सा लगता नहीं है...


जाने कौन सी क़िस्म के फूल खिलते हैं उस पार

इस तरफ भी जो बुझ गया, बुझा हुआ-सा लगता नहीं है.


नर्म जान के कभी, वक़्त ने झुकाया भी है कहीं,

मुझे कुछ अपना क़द, तो कम हुआ-सा लगता नहीं है. 

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