Tuesday, September 18, 2007

intzaar

इंतज़ार 


इस क़दर बढ़ते गए हैं, तेरे इंतज़ार के दिन,
उड़ते पंछियों को देख, हम मुस्कुराते नहीं हैं अब

कोरे काग़ज़ों से जैसे कतराती हैं उंगलियाँ
शब्दों के जाल दिल को लुभाते नहीं हैं अब।

उम्मीद के लम्हों में, अरमान मचल जाते थे कभी
चाँद के घटने बढ़ने से, जल जाते नहीं हैं अब।

दिल बहल ही जाता था, पंखड़ी छू कर ग़ुलाब की
सर्द सुबहों को बागीचे में, हम जाते नहीं हैं अब।

* * * * * * *

1 comment:

Anonymous said...

kya khoob likha hai !mubaarakbad qubool farmayei.n.
aagey bhi likhtei.n rahei.n intizar rahega.

arj kiya hai..
jab talak us chaand ko dekha na tha
chaand ko itna kabhi socha na thaa.

pramod kush 'tanha'